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सर्वसनसंग्रहे
इन प्रमाणों से ही प्रमेयों का ज्ञान तथा परीक्षण होता है। न्याय में प्रमाणशास्त्र ( Epistemology ) पर बहुत अधिक जोर दिया गया है। नव्यन्याय तो विशुद्ध प्रमाणशास्त्र ही है । प्रमाणों के विषय में जितना विश्लेषण भारतीय दर्शन में हुआ है विश्व के किसी भी दर्शन में मिलना असम्भव है-न्याय का तो यह विषय ही है । अन्य दर्शन इस दृष्टि से न्याय के ऋणी हैं। अपने विषयों के प्रतिपादन के लिए न्याय के कितने ही शब्द अन्य दर्शनकारों ने लिये है। इस दृष्टि से यदि न्याय-दर्शन को 'दर्शनों का दर्शन' कहें तो कोई अत्युक्ति न होगी।
( ३. प्रमेय पदार्थ का विचार ) प्रमायां यद्धि प्रतिभासते तत्प्रमेयम् । तच्च द्वादशप्रकारम्-आत्मशरीरेन्द्रियार्थबुद्धि मनः-प्रवृत्ति-दोष-प्रेत्यभाव-फल-दुःखापवर्ग-भेदात् । __ प्रभा अर्थात् यथार्थ अनुभव में जो दिखलाई पड़े, वहीं प्रमेय ( Knowable ) है । इसके बारह भेद हैं-आत्मा, शरीर, इन्द्रिय, अर्थ, बुद्धि, मन, प्रवृत्ति, दोष, प्रेत्यभाव, फल, दुःख और अपवर्ग।
विशेष-प्रमेयों के लक्षण न्यायसूत्र में प्रथम अध्याय में नवम सूत्र से लेकर २२ वें सूत्र तक दिये गये हैं । तृतीय और चतुर्थ अध्यायों में इनकी परीक्षा हुई है।
(१) आत्मा ( Soul )-ज्ञान से युक्त आत्मा है, यह सबों को देखनेवाली, सर्वज्ञ तथा सबों का अनुभव करनेवाली है । यह विभु और नित्य है। ईश्वर और जीव के रूप में इसके दो मेद हैं । सर्वज्ञ ईश्वर एक ही है,' जीव प्रत्येक शरीर के लिए भिन्न-भिन्न है। आत्मा के लिए कुछ चिह्न हैं, जैसे-इच्छा (जिस तरह की वस्तु से आत्मा को सुख मिलता है उसी तरह की वस्तु को इच्छा उसे होती है), द्वेष, प्रयत्न, सुख, दुःख और ज्ञान । दुःखप्रद वस्तु से द्वेष होता है, उन्हें हटाने या सुखद पदार्थों को लाने के लिए प्रयत्न होता है । भोग करने पर या बोध होने पर यह मालूम होता है कि यह अमुक पदार्थ है। १. न्यायकुसुमांजलि ( ५।१ ) में ईश्वर की सिद्धि के लिए प्रमाण दिये गये हैं
कार्यायोजनधृत्यादेः पदात्प्रत्ययतः श्रुतेः ।
वाक्यात्संख्याविशेषाच्च साध्यो विश्वविदव्ययः ॥ संसाररूपी कार्य के कर्ता के रूप में, सृष्टि के आरम्भ में दो परमाणुओं को जोड़नेवाले के रूप में, संसार का धारण करनेवाले के रूप में, विभिन्न कलाओं का व्यवहार चलाने वाले के रूप में, अतर्य वेद-सिद्धान्तों के प्रवर्तक के रूप में, श्रुति-प्रतिपादित होने के कारण, वाक्यभूत वेदों के रचयिता के रूप में, द्वित्वसंख्या की उत्पादक अपेक्षाबुद्धि को धारण करनेवाले के रूप में तथा अदृष्ट ( धर्माधर्म ) के व्यवस्थापक के रूप में विश्ववेत्ता अव्यय ईश्वर की सिद्धि होती है।