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सर्वदर्शनसंग्रहे
अग्नि नहीं वहाँ धूम नहीं जैसे- 'सरोवर', तब यह दृष्टान्त काम देगा । फलतः अन्वयविधि का दृष्टान्त साधर्म्य है, व्यतिरेक-विधि का दृष्टान्त वैधर्म्यं । ]
विशेष- - वाचस्पति मिश्र ने अपने न्यायसूचीनिबन्ध में उक्त तीन पदार्थों को न्यायपूर्वांग कहा है, क्योंकि ये न्याय अर्थात् पञ्चावयव अनुमान की भूमिका के रूप में हैं । न्यायसूत्र में संशय के पांच भेद माने गये हैं, क्योंकि वहाँ लक्षण ही कुछ दूसरे ढंग का है, यद्यपि फल दोनों का एक ही है- समानानेकधर्मोपपत्तेर्विप्रतिपत्तेरुपलब्ध्यनुपलब्ध्यव्यवस्थातश्च विशेषापेक्षो विमर्श: संशय: ( ११२।२३ ) | संशय वह ज्ञान है जिसमें विशेष धर्म की अपेक्षा रहती है । निम्नलिखित पांच कारणों से उत्पन्न होने के कारण संशय पाँच प्रकार का है( १ ) समानधर्मोपपत्ति- -- जब समान धर्मों की प्राप्ति कई वस्तुओं में हो और विशेष धर्म की अपेक्षा हो तब ऐसा ज्ञान संशय है। उच्चता-धर्म स्थाणु और पुरुष दोनों में है । निर्विकल्पक ज्ञान के अनन्तर दोनों वस्तुओं में संशय हो गया। जब हाथ-पैर आदि के रूप में विशेष धर्मों का ज्ञान हो जायगा तब संशय की निवृत्ति होगी कि यह मनुष्य है ।
(२) अनेकधर्मोपपत्ति - अनेक का अर्थ है सजातीय और विजातीय । जब असामान्य धर्मों का ज्ञान होता है तब भी संशय होता है । शब्द का श्रवण करके यह पूछना कि 'यह नित्य है या अनित्य', संशय है । शब्द का धर्म मनुष्य, पशु आदि अनित्य पदार्थों में भी नहीं है और न नित्य परमाणुओं में ही है गन्धवती होने के कारण पृथिवी, जल आदि द्रव्यों से भी विशिष्ट है, गुणकर्म से भी विशिष्ट है । अब संशय हो गया कि पृथिवी द्रव्य है कि गुण या कर्म ।
(३) विप्रतिपत्ति - शास्त्रों में परस्पर विवाद होने से भी संशय होता हैं । शब्द की नित्यता का उदाहरण प्रचलित ही है ।
(४) उपलब्ध्यव्यवस्था – कभी -कभी हम देखते हैं कि प्रत्यक्ष की अव्यवस्था से भी संशय होता है । तड़ागादि में तो विद्यमान होने पर जल का प्रत्यक्ष होता है पर मृगमरीचिका ( Mirage ) में अविद्यमान होने पर भी इसका प्रत्यक्ष होता है । अब संशय हुआ कि जल का प्रत्यक्ष क्या केवल विद्यमान अवस्था में ही होता है या अविद्यमान होने पर भी ।
(५) अनुपलब्ध्यव्यवस्था – कभी-कभी अप्रत्यक्ष की अव्यवस्था से संशय होता है। मूली में ( Radish ) जल है, पर दिखलाई नहीं पड़ता है । पत्थर में भी जल नहीं दीखता; पर वहाँ वास्तव में नहीं है । क्या जल विद्यमान या अविद्यमान दोनों ही दशाओं में दिखलाई नहीं पड़ता ? यही संशय है ।
( ४ क. सिद्धान्त और अवयव )
प्रामाणिकत्वेनाभ्युपगतोऽर्थः सिद्धान्तः । स चतुविध:- सर्वतन्त्रप्रति
: तन्त्राधिकरणाभ्युपगमभेदात् ।