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अक्षपाव-दर्शनम्
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(१) अपनी प्रतिज्ञा का खण्डन होता देखकर उसका निषेध करनेवाली प्रतिज्ञा मान लेना प्रतिज्ञाहानि है। शब्द ऐन्द्रियक होने के कारण अनित्य है, इस वाद का विरोध प्रतिवादी करता है कि सामान्य भी तो ऐन्द्रियक है पर नित्य है ऐसा सुनते ही वादी कहता है कि तब शब्द नित्य है । स्पष्ट रूप से यह पराजय है । (२) अपनी प्रतिज्ञा का खण्डन देखकर दूसरी प्रतिज्ञा मान लेना प्रतिज्ञान्तर है । वादी की प्रतिज्ञा पूर्ववत् है, प्रतिपक्षी ने उसी तरह खण्डन किया। अब वादी महाशय करवट बदलते हैं--सामान्य तो व्यापक है, अव्यापक शब्द अनित्य है । स्पष्टतः अपनी प्रतिज्ञा का वादी ने मौका देखकर संशोधन कर लिया, पर यह पकड़ा जायगा । ( ३ ) प्रतिज्ञावाक्य और हेतुवाक्य में विरोध होने से प्रतिज्ञाविरोध होता है । द्रव्य गुण से भिन्न है क्योंकि इसमें रूप, रस आदि गुणों से भिन्नता नहीं मिलती है । प्रतिज्ञावाक्य के अनुसार द्रव्य गुण से भिन्न है जब कि हेतुवाक्य के अनुसार द्रव्य गुण से भिन्न नहीं । बहुधा मन और वाणी का सम्बन्ध न होने से ऐसी बातें निकल पड़ती हैं जहाँ हारने का अवसर आ जाता है । ( ४ ) अपनी प्रतिज्ञा का खण्डन देखकर अपनी कही हुई बातों को अस्वीकार करना प्रतिज्ञासंन्यास है। शब्द के अनित्यः होने की प्रतिज्ञा का किसी ने अच्छी तरह खण्डन किया। अब वादी महाशय अपनी प्रतिज्ञा पर ही टूटे कि किसने कहा था कि शब्द अनित्य है ? मैंने कहा था ? कभी नहीं। (५) साधारण हेतु के काट दिये जाने पर विशेष प्रकार का हेतु देना हेत्वन्तर है । शब्द अनित्य है क्योंकि बाह्येन्द्रिय से प्रत्यक्ष होने योग्य है । अब प्रतिवादी दोष दिखाता है कि ऐसा करने पर सामान्य नामक पदार्थ में व्याभिचार होगा अर्थात् सामान्य बाह्येन्द्रियप्रत्यक्ष है पर नित्य नहीं । तब हेतु में संशोधन करने की आवश्यकता पड़ती है-'सामान्य से युक्त होने पर' ( सामान्यवत्त्वे सति ) बाह्येन्द्रियप्रत्यक्ष होने के कारण इत्यादि । सायण की ऋग्वेदभाष्यभूमिका में मन्त्रों की प्रामाणिकता दिखाने के समय या व्याप्ति के लक्षण देने में नव्यन्याय में इसका बड़ा सुन्दर प्रयोग हुआ है । सूक्ष्मता के लिए या शुद्धतम लक्षण देने के लिए इसकी आवश्यकता पड़ती है।
( ६ ) किसी प्रकरण में अप्रासंगिक बातें देना अर्थान्तर है । कोई हेतु का प्रयोग करे और हि-धातु ( हिनोति ) में तुन् प्रत्यय करने से धातु को गुण करके 'हेतु शब्द की व्युत्पत्ति समझाने लगे, तो उसे न्याय-शास्त्र में क्या कहेंगे ? बहुधा वैद्यराज किसी रोग का विवेचन करने के पूर्व अपने वैयाकरण-तत्त्व का प्रदर्शन अवश्य करते हैं । यह अप्रासंगिकता भी पराजय का कारण है । ( ७ ) निरर्थक अक्षरों का प्रयोग करके तर्क करना निरर्थक निग्रहस्थान है, जैसे-कचटतप शब्द नित्य हैं क्योंकि ये खछठथफ से सम्बद्ध हैं, जैसे-जडदब । इन वर्णसमूहों का कोई मतलब नहीं। (८) जब वादी ऐसा बोले कि तीन बार कहने पर भी न तो परिषद् के सदस्य (निर्णायकादि ) समझें और न प्रतिवादी ही समझे तो उसे अविज्ञातार्थ कहते है । ऐसा तब होता है जब वादी श्लिष्ट, असमर्थ, अप्रतीत या भिन्नभाषा के शब्दों का प्रयोग करता है अथवा शब्दों का जल्दी-जल्दी उच्चरण करता है।