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अक्षपाद-दर्शनम्
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जाने पर दुःख होता है जिसमें प्रतिकूल ( मन के विरुद्ध ) वेदना या अनुभव होता है और बाधा मिलती है ( हमारी इच्छा के विरुद्ध है)। ऐसा कोई नहीं मानेगा कि जो व्यक्ति प्रवृत्त नहीं होता उसे दुःख की प्राप्ति होगी। [प्रवृत्ति के अभाव में आवृत्ति नहीं होती, दुःख की सम्भावना भी नहीं रहती । इस दशा में दुःख का अनुभव नहीं होता । ] तो, मिथ्याज्ञान से लेकर दुःख तक-ये सारे धर्म अविच्छिन्नं ( विना रुके हुए ) रूप से चलते रहते हैं तथा 'संसार' शब्द का अर्थ भी यही है कि घटीचक्र ( रेहट ) की तरह लगातार चलता रहता है ( संसरतीति संसारः )।
जब कोई पुरुषश्रेष्ठ अपने पुराकृत (पूर्वजन्म में अजित ) पुण्यों के परिणामस्वरूप आचार्य के उपदेश से इस समूचे संसार को दुःख का आयतन ( समूह ) एवं दुःख से परिपूर्ण देखता है तो इन सभी वस्तुओं को हेय ( त्याज्य ) समझता है । उसके बाद इस संसार को उत्पन्न करनेवाले (निर्वर्तक ) कारणों जैसे, अविद्या आदि को हटाना चाहता है। उनकी निवृत्ति का उपाय तत्त्वज्ञान ही है। ___ कस्यचिच्चतसृभिविधाभिविभक्तं प्रमेयं भावयतः सम्यग्दर्शनपदवेदनीयतया तत्त्वज्ञानं जायते। तत्त्वज्ञानान्मिथ्याज्ञानमपैति । मिथ्याज्ञानापाये दोषा अपयान्ति । दोषापाये प्रवृत्तिरपेति । प्रवृत्त्यपाये जन्मापति । जन्मापाये दुःखमत्यन्तं निवर्तते । सा आत्यन्तिको दुःखनिवृत्तिरपवः । निवृत्ते
रात्यन्तिकत्वं नाम निवर्त्यसजातीयस्य पुनस्तत्रानुत्पाद इति । तथा च पारमर्ष सूत्रम्-दुःखजन्मप्रवृत्तिदोषमिथ्याज्ञानानामुत्तरोत्तरापाये तदनन्तरापायादपवर्गः (न्या० सू० १।१२) इति । __ जो व्यक्ति चार विधाओं ( प्रकारों = उद्देश, लक्षण, परीक्षा, विभाग ) में बांटकर प्रमेय की भावना ( ज्ञान ) करता है उसमें तत्त्वज्ञान अर्थात् सम्यक् दर्शन उत्पन्न होता है । तत्त्वज्ञान होने से मिथ्याज्ञान दूर होता है। मिथ्याज्ञान के हटने पर दोष दूर होते हैं । दोषों के नष्ट होने पर प्रवृत्ति नष्ट होती है । प्रवृत्ति के दूर होने पर होता जन्म का विनाश होता है जन्म के अपाय के बाद दुःख की आत्यन्तिक (पूर्ण रूप से ) निवृत्ति होती है । दुःख की यह आत्यन्तिक निवृत्ति ही अपवर्ग है । निवृत्ति तभी आत्यन्तिक कहलाती है जब निवृत्त होनेवाले ( दुःख ) के सजातीय [ किसी भी दूसरे दुःख ] की फिर वहाँ उत्पत्ति न हो । इसीलिए परमर्षि गौतम का सूत्र ही है-दुःख, जन्म, प्रवृत्ति, दोष और मिथ्याज्ञान, इनमें उत्तरोत्तर वस्तु का अपाय होने पर, उसके अनन्तर ( पूर्व-पूर्व ) की वस्तु का अपाय होता है तथा अन्त में अपवर्ग मिलता है।' ( न्याय सू० १।१।२ )।
१. दूसरे विचार से दुःख, दुःख-हेतु, दुःखनिरोध ( मोक्ष ) तथा मोक्षोपाय-य चार प्रकार हैं।