________________
सर्वदर्शनसंग्रहे
स्वभावत: निर्मल तथा क्षणिक है । ज्ञान इसलिए मलयुक्त हो जाता है कि उससे उसके धमों या आश्रय आत्मा का संसर्ग होता है । जब आश्रय की निवृत्ति हो जायगी तब अपने आप निर्मल ज्ञान क्षण-क्षण में उत्पन्न होने लगता है । पर इस प्रकार के मोक्ष में दो दोष नैयायिकों को दिखलाई पड़ते हैं - पर्याप्त साधन का अभाव तथा समानाधिकरण न होना । ]
[ हमारी प्रथम आपत्ति के उत्तर में यदि ये उत्तर दें कि निर्मल ज्ञानोदय के ] कारण के रूप में हम चार भावनाओं ( सर्व दुःखं, क्षणिकं, स्वलक्षणं, शून्यम् ) को मानते हैं तो हम कहेंगे कि इस स्थिति में जब बौद्धों का क्षण-भंग पक्ष मान लेंगे तो कोई भी आधार स्थिर नहीं हो सकता । [ जब क्षण-क्षण में ज्ञान बदल रहा है तो उसका आधार कैसे स्थिर हो सकता है, आत्मा ( आश्रय ) भी तो स्थिर नहीं हो सकती । ] जैसे बीच-बीच में छोड़कर अभ्यास करने से अध्ययन प्रकृष्ट नहीं हो सकता उसी तरह [ किसी एक स्थिर आधार के अभाव में छिटपुट हो जाने से ये भावनाएँ भी ] प्रकृष्ट नहीं हो सकतीं । फल यह होगा कि ये भावनाएँ किसी भी निश्चित ( स्फुट ) ज्ञान या तत्त्वज्ञान का उत्पादन नहीं कर सकतीं । [ जब तक भावना प्रकृष्ट न हो उससे अभिज्ञान हो नहीं सकता । सामान्य भावना से कुछ नहीं होता । जैसे किसी स्फुट लक्षण से रहित मणि को देखने पर भी, 'यह मणि है ' केवल इतना कह देने से, मणित्व की भावना होने पर भी प्रत्यभिज्ञा नहीं हो सकती | बार-बार देखने के वाद प्रकृष्ट भावना होती है और तब किसी वस्तु को पहचाना जा सकता है । छोड़-छोड़ कर या लंघन करके अभ्यास करने से ज्ञान का प्रकर्ष नहीं होता। उसी प्रकार क्षण-क्षण में वदलनेवाले ज्ञान से प्रकर्ष नहीं होता - ऐसी भावना
जान नहीं दे सकती । इसलिए दुःख, क्षणिक, स्वलक्षण और शून्य के रूप में प्रत्यना नहीं हो सकती। फल यह हुआ कि मोक्ष की सामग्री ( साधन ) भावना नहीं है । कोई भी साधक तत्त्वज्ञान को उत्पन्न नहीं कर सकता । ]
४२४
--
दूसरे, उपप्लव ( स्वाभाविक क्लेश, मल) से युक्त ज्ञान का प्रवाह बद्ध कहलाता है जब कि उपलब्ध से रहित ज्ञान प्रवाह मुक्त होता है - ऐसी दशा में 'जो बद्ध था वही मुक्त हुआ ऐसा समानाधिकरण होना सम्भव ही नहीं । [ मुक्त की दशा में समानाधिकरण होना बहुत आवश्यक है - जो वद्ध हुआ था उसे ही मुक्त होना चाहिए । किन्तु यहाँ तो जो ज्ञान वा व या वह दूसरा है। मुक्त होनेवाला ज्ञानप्रवाह दूसरा ही है। इस प्रकार विज्ञानवारियों का मोक्ष भी ठीक नहीं माना जा सकता । ]
( १०. जैनों के मत से मोक्ष का विचार )
आवरण मुक्तिर्मुक्तिरिति जनमताभिमतोऽपि मार्गो न निसर्गतो निरल: । अङ्ग, भवान्पृष्टो व्याचष्टां किभावरणम् । धर्माधर्मभ्रान्तय इति १. अनेन का 'उड़ना' अर्थ लेकर समझाया है कि उड़ने की कला में भी होता है जब अभ्यास किया जाय । उसी प्रकार भावना की आवृत्ति से आती है।