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अक्षपाद-दर्शनम्
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cognition ) मानते हैं या उससे कुछ भिन्न ? [ विकल्प ये हैं-आत्मा का अर्थ क्या ज्ञान का प्रवाह है या ज्ञानप्रवाह से भिन्न उसका आश्रय ?]
यदि पहली बात है (कि आत्मा का , अर्थ ज्ञान है ) तो कोई झंझट नहीं है। कौन ऐसा मूर्ख होगा जो उसके अनुकूल बात करने वाले पक्ष के विरुद्ध अपने आचरण दिखायेगा? [ तात्पर्य यह है कि आत्मा को ज्ञान मानने से आत्मोच्छेद का अर्थ ज्ञानोच्छेद हो जायगा, जो नेयायिकों में अनुकूल ही है। मोक्ष में ये ज्ञान-नाश मानते ही हैं। नेयायिकों का सिद्धान्त है कि मोक्ष में जीव की स्थिति प्रायः पाषाण की तरह हो जाती है । जब माध्यमिक लोग नेयायिकों के पक्ष में ही बोल रहे हैं, तब उनका खण्डन करने की मूर्खता कौन करे ?] ____यदि दूसरी बात है ( कि आत्मा का अर्थ ज्ञान का आश्रय है ), तो यदि वह नित्य हुई तो उसकी निवृत्ति (विनाश ) का विधान करना असम्भव है। यदि अनित्य हुई तो भी [ 'उसके विनाश के लिए किसी व्यक्ति में ] प्रवृत्ति उत्पन्न नहीं होगी। एक और दोष होगा कि [ 'अमुक व्यक्ति मुक्त हुआ' इस प्रकार का ] व्यवहार भी लोक में नहीं चल सकता । 'आत्मा की प्रसन्नता के लिए ही सारी वस्तुएँ प्रिय लगती हैं। इसलिए जो आत्मा संसार में सबसे अधिक प्रिय है, उसके विनाश के लिए कौन बुद्धिमान व्यक्ति प्रयत्न करेगा? [ इसलिए आत्मोच्छेद की प्रवृत्ति होगी हो नहीं । ] दूसरी ओर, सभी प्राणी, धर्मी (आत्मा ) के रहने पर ही तो उसका मोक्ष हुआ, ऐसा व्यवहार करते हैं ? [ कहने का यह अभिप्राय है कि जब हम कहते हैं कि शुक मुक्त हुए, वामदेव मुक्त हुए तो उस उक्ति के पीछे यह तात्पर्य है-मोक्ष धर्म है, इसका आश्रय धर्मी ( आत्मा के रूप में ) कोई अवश्य है। यदि मोक्ष हो जाने पर आत्मा का विनाश हो जाता तो ऐसा व्यवहार कभी नहीं करते कि अमुक मुक्त हुआ । सत्य तो यह है कि व्यवहार से प्रतीत होता है कि मुक्त होने पर भी आत्मा की सत्ता रहती है।
(९ क. मोक्ष के विषय में विज्ञानवादियों का मत ) मिनिवृत्ती निर्मलज्ञानोदयो महोदय इति विज्ञानवादिवादे सामग्रघभावः सामानाधिकरण्यानुपपत्तिश्च । भावनाचतुष्टयं हि तस्य कारणमभीष्टम् । तच्च क्षणभङ्गपक्षे स्थिरैकाधारासम्भवात् लङ्घनाभ्यासादिवत् अनासादितप्रकर्ष न स्फुटमभिज्ञानमभिजनयितुं प्रभवति सोपप्लवस्य ज्ञानसन्तानस्य बद्धत्वे निरुपप्लवस्य च मुक्तत्वे यो बद्धः स एव मुक्त इति सामानाधिकरण्यं न संगच्छते।
धर्मी ( ज्ञान का आश्रय = आत्मा ) की निवृत्ति हो जाने पर निर्मल ज्ञान का उदय होना ही महोदय ( मोक्ष ) है-विज्ञानवादियों के इस मत में हमारी यह आपत्ति है कि इसमें एक तो कारण-सामग्री ( साधन ) नहीं है; दूसरे दोनों दशाओं का समानाधिकरण ( एकाधार ) होना भी सिद्ध नहीं किया जा सकता। [विज्ञानवादी मानते हैं कि ज्ञान
इसमें एक तो कारण सामग्री साधन