________________
४३०
सर्वदर्शनसंग्रहे
अब पूर्वपक्षी यह शंका करते हैं कि ईश्वर की सता के लिए कौन-सा प्रमाण हैप्रत्यक्ष, अनुमान या आगम ? इस विषय में प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं लग सकता, क्योंकि [ ईश्वर ] रूप आदि से रहित होने के कारण इन्द्रियों को पहुँच के भीतर नहीं है । [ प्रत्यक्ष में इन्द्रियों के साथ सन्निकर्ष चाहिए । ईश्वर के साथ इन्द्रियसन्निकर्ष सम्भव ही नहीं । ] अनुमान भी ईश्वर की सिद्धि नहीं कर सकता, क्योंकि ईश्वर के द्वारा व्याप्त कोई लिंग ( हेतु ) ही नहीं है । [ अनुमान में लिंग या ज्ञापक वस्तु ( Middle term ) का होना अनिवार्य है । हेतु साध्य ( ईश्वर ) के द्वारा व्याप्त होना चाहिए, परन्तु ईश्वर का ज्ञापक कोई पदार्थ प्रत्यक्षादि प्रमाणों से ज्ञात नहीं होता।]
आगम प्रमाण भी नहीं लग सकता, क्योंकि दोनों निम्नांकित विकल्प असिद्ध हो जाते हैं। ईश्वर को बतलानेवाला आगम स्वयं नित्य है या अनित्य ? यदि नित्य है तो अपसिद्धान्त हो जायगा [ अर्थात् आप नैयायिकों के सिद्धान्त के विरुद्ध हो जायगा। अभिप्राय यह है कि विशेष वर्गों के विशेष संघटन को आगम कहते हैं । वर्णों का उच्चारण होने के बाद ही प्रध्वंस हो जाता है इसलिए वे अनित्य हैं तथा आगम की भी अनित्यता सिद्ध होती है। यही नैयायिकों का सिद्धान्त है । पूर्वपक्षी कहते हैं कि यदि नैयायिक लोग नित्य आगम से ईश्वर को सिद्धि करें तो अपने ही सिद्धान्तों की हत्या करनी पड़ेगी। ] यदि अनित्य आगम से ईश्वर की सिद्धि करते हैं तो अन्योन्याश्रय-दोष होगा। [ आगम अनित्य है तो उसका प्रामाण्य कर्ता ( ईश्वर ) के प्रामाण्य पर निर्भर करता है और उधर कर्ता ( ईश्वर ) की प्रामाणिकता उसके बनाये आगम पर निर्भर करती है-इस प्रकार अन्योन्याश्रय-दोष होता है।
उपमान आदि प्रमाणों का तो यहाँ पर प्रश्न ही नहीं उठता। उन सभी प्रमाणों के विषय निश्चित हैं [ तथा ईश्वर-सिद्धि के लिए लाभदायक सिद्ध नहीं हो सकते । ] इसलिए हमारी सम्मति में ईश्वर शश-विषाण ( खरहे के सींग ) की तरह असिद्ध है।
(१३ क. नैयायिकों का उत्तर-ईश्वरसिद्धि ) तदेतन्न चतुरचेतसां चेतसि चमत्कारमाविष्करोति। विवादास्पदं नगसागरादिकं सकर्तृकं कार्यत्वात्कुम्भवत् । न चायमसिद्धो हेतुः। सावयवत्वेन तस्य सुसाधनत्वात् । ननु किमिदं सावयवत्वम् ? अवयवसंयोगित्वमवयवसमवायित्वं वा? नाद्यः। गगनादौ व्यभिचारात् । न द्वितीयः तन्तुत्वादावनकान्त्यात् ।
उपर्युक्त तर्क चतुर बुद्धिवाले के चित्त में चमत्कार उत्पन्न नहीं कर सकता, ( मूर्ख लोग भले ही ठगे जायं )। इन प्रस्तुत ( विवादास्पद ) पर्वत, सागर आदि सारे पदार्थों का कोई कर्ता होगा क्योंकि ये कार्य हैं, जैसे घट । [ इन अनुमान से ईश्वर की सिद्धि होती है। यहाँ पर 'कार्यत्व' के रूप में ] जो हेतु दिया गया है वह असिद्ध ( साध्यसम ) नहीं है । 'सावयव' हेतु के द्वारा उसकी सिद्धि अच्छी तरह से की जा सकती है। [ 'कार्यत्व' हेतु की