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सर्वदर्शनसंग्रहे
( १२. नैयायिक मत से मुक्ति-विचार )
ननु सुखाभिव्यक्तिर्मुक्तिरिति पक्षं परित्यज्य दुःखनिवृत्तिरेव मुक्तिरिति स्वीकारः क्षीरं विहाया रोचक प्रस्तस्य सौवीररुचिमनुभावयतीति चेत्तदेतन्नाटकपक्षपतितं त्वद्वच इत्युपेक्ष्यते । सुखस्य सातिशयतया साक्षतया बहुप्रत्यनीकाक्रान्ततया साधनप्रार्थनपरिक्लिष्टतया च दुःखाविनाभूतत्वेन विषानुषक्तमधुवद् दुःखपक्षनिक्षेपात् ।
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अब कोई कह सकता है - 'सुख की अभिव्यक्ति ही मोक्ष है,' इस सुन्दर पक्ष को छोड़कर 'दुःख की निवृत्ति मोक्ष हैं' यह स्वीकार करना ठीक वैसा ही हुआ जैसे अरुचि से ग्रस्त व्यक्ति को तो दूध तो दे नहीं, उलटे नीरस काँजी ( सौवीर = खट्टा-तोता रस ) पिलाकर रुचि बढ़ाने का प्रयास करें । [ अरुचि से ग्रस्त व्यक्ति को एक तो किसी चीज की रुचि स्वभावतः नहीं होती । यदि उन्हें कुछ स्वादयुक्त पदार्थ दें तो रुचि बढ़े भी । परन्तु नीरस कांजी पिलाने से रुचि बढ़ेगी क्या, उलटे उस व्यक्ति में अरुचि और बढ़ती ही जायेगी । वैसे ही प्राणियों में मोक्ष की प्रवृत्ति एक तो स्वभाव से ही कम है, दूसरे यदि उन्हें आप बतलायेंगे कि मुक्ति में सुख तनिक नहीं है तो कौन मूर्ख इसमें प्रवृत्त होगा ? कोई नहीं । ]
हम उत्तर देंगे कि आपकी बात नाटक के संवाद की तरह है, इसलिए उपेक्षणीय है । | गम्भीर दार्शनिक विवेचन में इस तरह के क्षणिक चमत्कारी वाक्यों से काम नहीं चलता । वेसी बातों की असिद्धि दूसरे प्रमाणों से तुरन्त ही कर दी जायगी । अनुकूल तर्क के अभाव में केवल दृष्टान्त देने से कोई बात सिद्ध नहीं हो जाती । आप लोगों में किस तरह अनुकूल तर्क का अभाव है वह देखें - ] सुख का दुःख के साथ अविनाभाव ( व्याप्ति ) सम्बन्ध है क्योंकि सुख सातिशय ( एक दूसरे से बढ़नेवाला ) है, उसके समान दूसरे सुख हो सकते हैं, नाना प्रकार के विघ्नों से भरा भी है तथा सुख के साधनों की प्रार्थना ( याचना ) करने में क्लेश भी खूब ही होते हैं । फलतः विषरस से भरे मधु के समान सुख भी दुःख की ही श्रेणी में चला आता है । [ संसार में एक से बढ़कर दूसरे सुख हैं, कहीं उसकी इयत्ता नहीं । जब अतिशय की प्राप्ति नहीं होगी तो प्राणी उसकी आशा में लगा रहेगा और 'आशा हि परमं दुःखम् ।' सुखानुभव के बाद परिणाम दुःखद ही होता है । तो क्या ऐसे सुख की प्राप्ति के लिए प्राणी प्रयत्नशील होगा ? सुखोद्देश्य से मुक्ति की प्रवृत्ति नहीं हो सकती । ]
नन्वेकमनुसंधित्सतोsपर प्रच्यवत इति न्यायेन दुःखवत्सुखमप्युच्छियत इत्यकाम्योऽयं पक्ष इति चेत् — मैवं मंस्थाः । सुखसम्पादने दुःखसाधनबाहुल्यानुषङ्गनियमेन तप्तायः पिण्डे तपनीयबुद्ध्या प्रवर्तमानेन साम्यापातात् । तथा हि-न्यायोपार्जितेषु विषयेषु कियन्तः सुखखद्योता: कियन्ति दु:खदुदिनानि | अन्यायोपार्जितेषु तु यद् भविष्यति तन्मनसाऽपि चिन्तयितुं न शक्यमिति ।