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अक्षपाद-दर्शनम्
प्रमाणमिति चेत्-न । योग्यानुपलब्धिबाधिते तदनवकाशात् । अवकाशे वा ग्रावप्लवेऽपि तथाभावप्रसङ्गात् ।
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भट्ट सर्वज्ञ ( कुमारिल ) आदि के मत से नित्य और निरतिशय ( सर्वोच्च ) सुख की अभिव्यक्ति ही मुक्ति है । इन्हें भी दुःख की निवृत्ति अभिमत ही है [ क्योंकि थोड़ा भी 'दुःख रहने से सुख निरतिशय नहीं रह सकता । ] लेकिन मोक्ष होने पर नित्यसुख की प्राप्ति होती है, यह प्रमाणों से सिद्ध नहीं हो सकता । यदि आप कहें कि इसमें श्रुतिप्रमाण है, वहाँ नहीं लगाया जा सकता जहां योग्य ( उचित ) अनुपलब्धि से विषय का खण्डन होता हो । यदि श्रुति -प्रमाण लगाया गया हो तो 'पत्थर तेरते हैं' इस तरह के वाक्यों में भी [ मुख्यार्थं लेकर ही इनकी ] प्रामाणिकता स्वीकार करनी पड़ेगी ।
विशेष - नित्य और निरतिशय सुख के प्रकाशन को मोक्ष माननेवाले मीमांसकों की बात में नैयायिकों को अपनी बात की पुष्टि तो मिल जाती है कि मुक्ति में दुःखोच्छेद हो जाता है पर 'नित्यसुख' का प्रयोग उन्हें खटकता है। मीमांसक लोग कह सकते हैं कि 'सोऽश्नुते सर्वान्कामान्सह ब्रह्मणा विपश्चिता' ( तै० २1१ ) आदि वेद - वाक्य प्रामाणिक हैं जहाँ मोक्ष होने पर सभी कामनाओं की प्राप्ति का वर्णन है । तो सुख स्वीकार्य ही है; पर उन्हें यह जानना चाहिए कि श्रुति में प्रतिपादित होने पर भी जिस विषय का अभाव मिले, जो विषय बाधित हो - वैसे स्थानों पर श्रुतियाँ प्रमाण नहीं होतीं । तात्पर्य यह है कि वहाँ श्रुतियों का मुख्यार्थ नहीं लिया जा सकता । गौणार्थ में वैसे वाक्यों का उपयोग होता है । 'आत्मनः आकाशः संभूतः' ( तै० २1१ ) में आकाश की उत्पत्ति का वर्णन है | अब प्रश्न होगा कि अवयव-रहित आकाश की उत्पत्ति कैसे सम्भव है ? अतः यह अर्थ बाधित हो गया तो उत्पत्ति का अर्थ ( गौणार्थ ) हमें लेना होगा - अभिव्यक्ति । उसी प्रकार मोक्षावस्था में शरीर और इन्द्रियों का सम्बन्ध न होने के कारण सुख की प्राप्ति नहीं हो सकती । यह विषय बाधित हो गया । गौणार्थ लेना चाहिए । सर्व कामों की अवाप्ति = सर्व कामों की अवाप्ति का अभाव । मोक्ष में जब शरीर और इन्द्रियाँ ही नहीं हैं तो काम की प्राप्ति या अप्राप्ति क्या होगी ? इसलिए अप्राप्ति का अभाव ही मानना पड़ेगा । दूसरे, उस वाक्य में 'सह अश्नुते' का प्रयोग है। सह का अर्थ होता है एक ही साथ । सभी इन्द्रियों से सभी विषयों का एक ही साथ भोग करना कभी सम्भव नहीं । मन तो अणु है, वह एक बार में एक ही विषय से सम्बद्ध हो सकता है । अतः हमें किसी भी दशा में श्रुतिवाक्य का गौणार्थं ही मानना पड़ेगा । यदि श्रुति में गौणार्थ न मानकर हठ से मुख्यार्थ ही मानेंगे तो 'प्लवन्ते ग्रावाण:' ( पत्थर ते रते हैं, षड़वंश ब्राह्मण ५।१२ ) ऐसे वाक्यों का भी मुख्यार्थ ही प्रमाण मानना पड़ेगा ।
सभी मतों का खण्डन करके नेयायिक लोग अपने मत - 'दुःखोच्छेदवाद'षण तथा प्रतिपादन करते हैं ।
- का विश्ले