________________
अक्षपाद-दर्शनम्
४१७
अब हम अभी तक वर्णन किये गये न्यायशास्त्रीय पदार्थों की उपादेयता पर विचार करें। प्रमेय के बारह भेदों में जो अर्थ नामक भेद है उसके अन्दर ही प्रमेय को छोड़कर अन्य पन्द्रह पदार्थ चले आते हैं, प्रमेयों में भी अर्थ को छोड़कर अन्य सभी प्रमेय उसके अन्दर ही हैं । सूत्रकार यह अन्तर्भाव मानते भी हैं किन्तु मोक्ष के साधन होने के कारण इन सबों को पृथक्-पृथक् रखा गया है। मोक्ष (१२) का अर्थ दुःख से बिल्कुल बच जाना। दुःख (११) मृत्यु तथा गर्भवासरूपी प्रेत्यभाव (९) से होता है। प्रेत्यभाव भी सुख-दुःख का फल (१०) उत्पन्न करनेवाली प्रवृत्ति (७ ) से उत्पन्न होता है । प्रवृत्ति भी मनोगत (६) राग-द्वेष-मोह रूप दोषों (८) से होती है । दोष की हानि शरीर (२), इन्द्रिय ( ३ ) और अर्थ ( ४ ) से पृथक् रूप में आत्मा ( १ ) के तत्त्व के ज्ञान ( ५ ) से होती है । इस प्रकार ये प्रमेय मोक्ष के उपयोगी हैं।
षोडश पदार्थों की उपादेयता भी कम नहीं । प्रमेय ( २ ) में गिनाये गये तत्त्वों का ज्ञान प्राप्त करना ही प्रमाणों ( १ ) का प्रयोजन ( ४ ) है । प्रमाणों से सूक्ष्म विषय के लए अनुमान ही पंचावयव ( ७ ) से युक्त होकर दृष्टान्त (५) के आधार पर अनुग्राहक तर्क ( ८) की सहायता से संशय ( ३ ) का निराकरण करके सिद्धान्त (६ ) के अनुसार निर्णय (९) दे सकता है । निर्णय भी पक्ष और प्रतिपक्ष का परिग्रह करनेवाली कथा के भेदो में वाद (१०) के द्वारा ही दृढ़ हो सकता है । कथा में भी जल्प ( ११ ), वितण्डा ( १२ ), हेत्वाभास (१३ ) छल ( १४ ) जाति ( १५) तथा निग्रहस्थान (१६ ) का ज्ञान आवश्यक है क्योंकि ये त्याज्य हैं । इस प्रकार सूत्रकार के द्वारा दिखलाये गये सभी पदार्थों का ज्ञान मोक्ष के लिए उपयोगी है।
अब, इन पदार्थों के साथ हमारा क्या व्यवहार हो ? जल्प आदि का प्रयोग तो स्वयं करना ही नहीं चाहिए । यदि दूसरे प्रयोग कर रहे हैं तो मध्यस्थों को चाहिए कि वे उन्हें दोष दिखाकर रोके। यदि प्रतिपक्षी अज्ञानी, मुर्ख या हठी हो तो मौन धारण करना ही अच्छा है। यदि मध्यस्थ अनुमति दें तो छल आदि का प्रयोग करके उस मूर्ख को परास्त कर दें। ऐसा न होने से जनता समझेगी कि चुप हो जाने के कारण यह परास्त हो गया और प्रतिपक्षी की बात मान लेने से अज्ञानी लोग ठगे जायंगे।'
(७. न्यायशास्त्र का नामकरण ) ननु प्रमाणादिपदार्थषोडशके प्रतिपाद्यमाने कथमिदं न्यायशास्त्रमिति व्यपदिश्यते ? सत्यम् । तथाऽप्यसाधारण्येन व्यपदेशा भवन्तीति न्यायेन १. अन्यत्र कहा गया
दुःशिक्षितकुतकांशलेशवाचालिताननाः ।। शक्याः किमन्यथा जेतुं वितण्डादोषमण्डिताः । गतानुगतिको लोक: कुमागं तत्प्रतारितः । मा गादिति च्छलादीनि प्राह कारुणिको मुनिः ।