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न्यायस्य परार्थानुमानापरपर्यायस्य सकलविद्याऽनुग्राहक तथा सर्वकर्मानुष्ठानसाधनतया प्रधानत्वेन तथा व्यपदेशो युज्यते ।
कोई पूछता है कि इस शास्त्र में प्रमाण आदि सोलह पदार्थों का प्रतिपादन होता है फिर इसे 'न्यायशास्त्र' क्यों कहते हैं ? शंका ठीक है, पर एक नियम है कि किसी असाधा - रण (प्रधान) वस्तु के [ नाम पर समूह-भर का ] नाम पड़ता है - इसी नियम से न्याय को, जिसका दूसरा नाम परार्थानुमान भी है, सभी ज्ञानों का अनुग्राहक ( सहायक ) होने के कारण तथा सभी कर्मों के सम्पादन का साधन होने के कारण प्रधान होने से वैसा नाम ( व्यपदेश ) ठीक ही दिया गया है । [ अभिप्राय यह है कि पंचावयव वाक्यों से बने हुए परार्थानुमान को न्याय कहते हैं जिससे विवक्षित की सिद्धि हो वही न्याय है ( नि + / इ + घञ् ) । इस शास्त्र में परार्थानुमान का प्रमुख स्थान है क्योंकि इसी से सभी ज्ञान प्राप्त होते हैं, शास्त्रार्थ चलते हैं तथा जय-पराजय होती है। किसी की प्रधानता देखकर पूरे समूह का नाम वैसा ही रख देते हैं । परार्थानुमान का नाम न्याय तो है ही, पूरे शास्त्र को ही न्याय कहते हैं । ]
तथाभाणि सर्वज्ञेन - - ' सोऽयं परमो न्यायो विप्रतिपन्नपुरुषं प्रति प्रतिपादकत्वात् । तथा प्रवृत्तिहेतुत्वाच्च' ( न्या० सू० वार्तिक १।१।१ ) इति । पक्षिलस्वामिना च - - 'सेयमान्वीक्षिकी विद्या प्रमाणादिभिः पदार्थः प्रविभ
ज्यमाना
सर्वदर्शनसंग्रहे
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३. प्रदीपः सर्वविद्यानामुपायः सर्वकर्मणाम् । अश्रयः सर्वधर्माणां विद्योद्देशे परीक्षिता ॥
( न्या० सू० भाष्य १|१|१| ) इति । इसलिए भासर्वज्ञ ने कहा है- 'विरोधी व्यक्ति के सामने भी तत्त्व का प्रतिपादक होने के कारण यही परम न्याय ( मुख्य प्रमाण, निर्णायक ) है, उसी प्रकार इसी ( परार्थानुमान) से प्रवृत्ति (क्रिया ) भी उत्पन्न होती है । ' ( न्यायसूत्रवार्तिक १1१1१ ) 1
पक्षिलस्वामी ( वात्स्यायन, / पक्ष + इलच् = पक्ष अर्थात् तत्त्वज्ञान का परिग्रह करने वाले ) ने भी कहा है - यही आन्वीक्षिकी ( न्याय ) विद्या है जो प्रमाण आदि सोलह पदार्थों में बंटकर - ( ३ ) यह सभी विद्याओं ( ज्ञानों ) के लिए दीपक के समान है, सभी कर्मों का उपाय है, सभी धर्मो का आश्रय स्थान है तथा ज्ञान के व्याख्यान में पूर्णतः परीक्षित हो चुकी है । ( वात्स्यायनभाष्य १।१।१ ) ।
विशेष -- प्रत्यक्ष और आगम के द्वारा जिस पदार्थ को देख चुके हैं उन्हें अनुमान के द्वारा फिर से देखना ( परीक्षा करना ) अन्वीक्षा है अर्थात् अन्वीक्षा = अनुमान ( प्रत्यक्ष और आगम पर आश्रित ) । अन्वीक्षा ( अनुमान ) से जो शास्त्र चलता है ( प्रवृत्त होता है) वह आन्वीक्षिकी या न्यायशास्त्र है । उक्त श्लोक में वात्स्यायन ने न्याय की बड़ी प्रशंसा की है ।