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अक्षपाद-दर्शनम्
परार्थानुमानवाक्यैकदेशोऽवयवः । स पश्वविधः - प्रतिज्ञाहेतुवाहरणोपनयनिगमनभेदात् ।
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प्रामाणिक मानकर सिद्ध किया गया अर्थ ( Fact ) सिद्धान्त है। इसके चार भेद हैं - सर्वतन्त्र, प्रतितन्त्र, अधिकरण और अभ्युपगम सिद्धान्त । [ सिद्धान्त या तो किसी दार्शनिक सम्प्रदाय की प्रामाणिकता स्वीकार करता है या किसी अधिकरण ( आधार ) की या फिर किसी ज्ञापक ( Implied ) विषय की । सर्वतन्त्र सिद्धान्त वह है जिसे शास्त्रों की मान्यता प्राप्त हो । उदाहरण के लिए पाँच महाभूत, पाँच इन्द्रियों, इन्द्रियों के विषय आदि की स्वीकृति सभी दर्शनों में है । प्रतितन्त्रसिद्धान्त वह है जो समानतन्त्र ( जैसे न्याय का समानतन्त्र वैशेषिक दर्शन है ) में तो मान्य हो किन्तु दूसरे तन्त्रों ( दार्शनिक सम्प्रदायों) में असिद्ध हो । जैसे- शब्द की अनित्यता न्यायवैशेषिक में मान्य है किन्तु मीमांसकादि इसे नहीं मानते । असत्कार्यवाद को न्याय-दर्शन मानता है, सांख्य नहीं मानता । अधिकरणसिद्धान्त उसे कहते हैं जिसे सिद्ध कर लेने पर दूसरे प्रकरणों की भी सिद्धि हो जाती है, जैसे--देह और इन्द्रियों के अतिरिक्त एक ज्ञाता है, क्योंकि दर्शन और स्पर्शन के द्वारा एक ही अर्थ ( Object ) का ग्रहण किया जा सकता है ( न्या० सू० ३|१|१ ) | इस सिद्धान्त को मान लेने पर कुछ आनुषंगिक अर्थ भी मानने पड़ते हैं, जैसे - ( १ ) इन्द्रियाँ अनेक हैं, (२) प्रत्येक इन्द्रिय का अपना एक विषय है, (३) आत्मा या ज्ञाता को इन इन्द्रियों के माध्यम से ही ज्ञान मिलता है, ( ४ ) अपने गुणों से पृथक् वर्तमान द्रव्य हो इन्द्रियों का आश्रयस्थान है आदि-आदि। इन अर्थों के बिना पहले सिद्धान्त की सम्भावना नहीं । परन्तु पहले सिद्धान्त के सिद्ध होने पर ही ये अर्थ सिद्ध होते हैं | अभ्युपगम सिद्धान्त उसे कहते हैं जो स्पष्ट रूप से कहा नहीं गया हो ( वाचनिक न हो ) किन्तु उससे सम्बद्ध विशेषों को देखने पर अनुमान से ज्ञात हो । इसे ही व्याकरण में ज्ञापक ( Implied ) कहते हैं । उदाहरण के लिए जब प्रश्न कहते हैं कि शब्द नित्य है या अनित्य, तब यह मानकर चलना पड़ता है कि शब्द एक द्रव्य है । इस प्रकार 'शब्द द्रव्य है' यह अभ्युपगम सिद्धान्त ( Implied dogma ) है । न्यायदर्शन में यह कहीं नहीं कहा गया है कि मन ज्ञानेन्द्रिय है किन्तु सम्बद्ध स्थलों की परीक्षा करने पर ऐसा मानना पड़ता है । ]
अवयव परार्थानुमान के वाक्य का एक भाग है जिसके पांच भेद हैं-- प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय और निगमन । [ जिस वाक्य की सिद्धि करनी होती है उसका निर्देश कर देना ही प्रतिज्ञा है, जैसे- शब्द अनित्य है । उदाहरण के साधर्म्य या वैधर्म्य से साध्य वस्तु का कारण देना हेतु है, जैसे—क्योंकि यह उत्पन्न होता है । रणों में हेतु एक ही रहता है-भले ही दृष्टान्त बदलें । साध्य वैधर्म्य से उसके अनुकूल या प्रतिकूल दृष्टान्त देना उदाहरण
दोनों प्रकार के उदाह
वस्तु के साधर्म्य से या कहलाता है । वस्तु के