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सर्वदर्शनसंपहे
(८) दोष ( Faults)-प्रवृत्ति उत्पन्न करनेवाले दोष कहलाते हैं। ये तीन हैंराग, द्वेष और मोह । ये ही ज्ञाता को पुण्य या पाप की ओर प्रवृत्त करते हैं । जहाँ मिथ्याज्ञान होता है वहां राग और द्वेष रहते हैं । इन दोषों की संवेदना प्रत्येक आत्मा को होती है। राग, द्वेष या मोह के वश में प्राणी वह काम करता है जिससे सुख या दुःख मिलता है।
(९) प्रेत्यभाव ( Transmigration )-उत्पन्न होने के बाद मरकर फिर जन्म लेना ही प्रेत्यभाव है । उत्पन्न प्राणी का सम्बन्ध देह, इन्द्रिय, बुद्धि और संवेदना के साथ होता है । मर जाने पर ये सम्बन्ध छूट जाते हैं। जब पुनः उत्पत्ति होती है तब दूसरे शरीरादि का सम्बन्ध स्थापित होता है । जन्म-मरण के सम्बन्ध का यह अभ्यास ( आवृत्ति) तब तक चलता रहता है जब तक अपवर्ग की प्राप्ति न हो जाय।
(१०) फल ( Fruit )-प्रवृत्तियों और दोषों से उत्पन्न होनेवाले अर्थ को फल कहते हैं । फल में सुख और दुःख की संवेदना होती है । हम जो भी कर्म करते हैं उनमें कुछ तो सुख का फल देते हैं, कुछ दुःख का । देह, इन्द्रिय, विषय और बुद्धि के होने पर ही फल मिलता है इसलिए इन सबों को फल में गिन लेते हैं । इन फलों को लेने या त्यागने में ही सारा संसार व्यस्त है । इनका अन्त नहीं है।
(११) दुःख ( Pain)-जिससे पीड़ा या सन्ताप हो वही दुःख है। जब लोग देखते हैं कि सारा संसार ही दुःख से पूर्ण है तो दुःख को हटाने की इच्छा से जन्म की दुःख के रूप में समझकर निविण्ण ( निर्मम ) हो जाते हैं, तब विरक्त होते हैं और विरक्त होने पर मुक्त भी हो जाते हैं । दुःख तीन प्रकार के हैं-आध्यात्मिक आधिभौतिक और आधिदेविक । वात, पित्त और कफ के दोषों की विषमता से उत्पन्न शारीरिक अथवा काम, क्रोधादि से उत्पन्न मानसिक दुःखों को आध्यात्मिक कहते हैं । आन्तरिक उपायों से ही इसका निवारण सम्भव है । सर्प, व्याघ्र आदि जीवों से उत्पन्न दुःख आधिभौतिक है । यक्ष, राक्षस, ग्रहादि के आवेश से आया हुआ दुःख आधिदैविक है । ये दोनों दु:ख बाहरी उपाय से ही हटाये जा सकते हैं । दूसरे मत से दुःख इक्कीस तरह के हैं-शरीर, छह इन्द्रियाँ, छह विषय, छह बुद्धियां, सुख और दुःख । दुःख से सम्बन्ध होने के कारण सुख भी दुःख ही है। शरीरादि दुःख के साधन हैं, इसलिए दुःख के ही अन्दर हैं। दूसरे स्थान में बाहरी दुःखसाधन १६ प्रकार के माने गये हैं-परतन्त्रता, आधि ( मनःकष्ट ), व्याधि, मानच्युति, शत्रु, दरिद्रता, दो स्त्री होना, अधिक पुत्रियां होना, दुष्ट स्त्री, दुष्ट नौकर, कुग्रामवास, कुस्वामिसेवा, वार्धक्य, परगृह में रहना, वर्षा में परदेश रहना, बुरे हल से खेती । वस्तुतः दर्शनों का मूल ही दुःख है।
(१२) अपवर्ग ( Emancipation )-दुःखों से विलकुल मुक्त हो जाना अपवर्ग है। मिला हुआ जीवन जब नष्ट हो जाय और अप्राप्त जीवन न मिले तभी अपवर्ग है। इस प्रकार नेयायिक अपवर्ग की व्याख्या निषेधात्मक शब्दों में करते हैं।