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ओलून-दर्शनम्
द्रव्यगुणकर्मनिष्पत्तिवैधर्म्यादभावस्तमः'
प्रणिनाय सूत्रं - ' ५।२।१९ ) इति ।
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( व० सू०
ग्रहण करने के लिए
क्योंकि अभाव की
ऐसा नहीं सोचना चाहिए कि अन्धकार ( प्रकाशाभाव ) का अधिकरण (स्थान, आधार ) का भी ज्ञान प्राप्त करना आवश्यक है, प्रतीति ( ज्ञान ) के लिए अधिकरण का ग्रहण करना आवश्यक नहीं माना जाता । यदि ऐसा नहीं होता तो कोलाहल समाप्त हो गया' इस वाक्य में जो शब्द ( आवाज ) का प्रध्वंस समझा जाता है वह प्रत्यक्ष का नहीं होता [ क्योंकि शब्द का आश्रय आकाश है, वह आकाश प्रत्यक्ष विषय है ही नहीं इस तरह शब्द और शब्दाभाव दोनों ही आधार के अप्रत्यक्ष होने के कारण प्रत्यक्षीकृत नहीं होते । किन्तु यह बात लोकसिद्ध है कि दोनों का प्रत्यक्षीकरण होता है । अतः अन्धकार आलोक का ही अभाव है, यह सिद्ध हो गया । ] इस प्रकार दूसरे मतवादियों (जैसे- भाट्ट, वेदान्ती आदि ) के सिद्धान्त अप्रामाणिक हैं । अतः इन सारी समस्याओं पर विचार करते हुए भगवान् कणाद ने सूत्र लिखा है'अन्धकार एक अभाव है, जो द्रव्य, गुण और कर्म की निष्पत्ति ( उत्पत्ति ) से विलक्षण होता है ' ( वैशेषिक सूत्र ५।२।१९ )
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विशेष - अन्धकार की उत्पत्ति और विनाश दोनों होते हैं । इसलिए सामान्य, विशेष और समवाय में तो इसका अन्तर्भाव हो ही नहीं सकता, क्योंकि ये पदार्थ नित्य हैं । द्रव्य, गुण और कर्म की उत्पत्ति होती है परन्तु इनमें भी अन्धकार खपाया नहीं जा सकता, क्योंकि अन्धकार की उत्पत्ति इनकी उत्पत्ति से बिल्कुल ही भिन्न है । उत्पन्न होने वाला द्रव्य अवयवों से आरम्भ होता है । अन्धकार की अनुभूति अकस्मात ही हो जाती है जब कि प्रकाश का अपसरण होता है । गुण और कर्म की उत्पत्ति द्रव्य को आधार लेकर ही होती है, अन्धकार के साथ ऐसी बात नहीं है ।
इस प्रकार निष्कर्ष निकलता है कि अन्धकार अभाव है । परन्तु किसका अभाव ? तो उत्तर होगा कि आलोक का अभाव ही अन्धकार है । अब प्रसंगतः अभाव को सप्तम पदार्थ मानकर इसका विवेचन करना अपेक्षित है ।
( १४. अभाव का विवेचन )
अभावस्तु निषेधमुखप्रमाणगम्यः सप्तमो निरूप्यते । स चासमवायत्वे
सत्यसमवायः ।
संक्षेपतो द्विविधः - संसर्गाभावान्योन्याभावभेदात् । संसर्गाभावोऽपि त्रिविध:- प्राक्प्रध्वंसात्यन्ताभावमेवात् । तत्रानित्योऽनावितमः प्रागभावः । उत्पत्तिमानविनाशी प्रध्वंसः । प्रतियोग्याश्रयोऽभावोऽत्यन्ताभावः । अत्यन्याभावव्यतिरिक्तत्वे सति अनवधिरभावोऽन्योन्याभावः ।