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औन-दर्शनम्
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द्रव्य ही नहीं है इसीलिए । ] कारण यह है कि अधिष्ठान ( आधार Substratum ) का ज्ञान हुए बिना किसी का आरोपण नहीं किया जा सकता । [ रस्सी देखने के बाद ही उस पर साँप का आरोपण होता है, शंख देखने के बाद ही पित्त दोष के कारण उस पर पीतत्व आदि गुणों को आरोपित करते हैं । अन्धकार पर नीलरूप का आरोपण तभी सम्भव है जब कोई आधार हो । ] दूसरा कारण यह है कि बाहरी प्रकाश की सहायता जब आँख को नहीं मिलती है तब वह रूप के आरोप में समर्थ नहीं हो सकती । [ अन्धकार में कोई प्रकाश तो है नहीं कि आँख उसे देखकर उस पर नील या किसी रूप का आरोप कर सके । बाह्य प्रकाश की सहायता लेने पर ही आँख किसी पदार्थ को पीला, नीला या हरा समझती है, प्रकाशाभाव में किसी भी रूप का आरोप करना उसके लिए नितान्त असम्भव है । ]
न चायमचाक्षुषः प्रत्ययः । यदनुविधानस्यानन्यथासिद्धत्वात् । अत एव नालोकज्ञानाभावः । अभावस्य प्रतियोगिग्राहकेन्द्रियग्राह्यत्वनियमेन मानसत्वप्रसङ्गात् ।
अन्धकार के ज्ञान को अचाक्षुष ( नेत्रेन्द्रिय से असंबद्ध, मानस ) ज्ञान भी नहीं कहा जा सकता । कारण यह है कि चक्षुरिन्द्रिय के द्वारा तम का ज्ञान होता है, यह विधान निरर्थक ( अन्यथासिद्ध ) हो जायगा । [ भाव यह है कि अन्धकार का ज्ञान चक्षुरिन्द्रिय की अपेक्षा रखता है । यह अपेक्षा तब असिद्ध हो जायगी जब हम अन्धकार - ज्ञान को अछाक्षुष मान लेंगे । ]
( ३ ) इसीलिए ( अन्धकार चूंकि चाक्षुषज्ञान से ज्ञेय है इसलिए ) आलोक के ज्ञान के अभाव को अन्धकार नहीं कह सकते। यह नियम है कि अभाव उसी इन्द्रिय के द्वारा ग्राह्य हो सकता है जो इन्द्रिय उसके प्रतियोगी ( विरोधी ) का ग्रहण कर सके । इसलिए अभाव मानस-ज्ञान है [ क्योंकि अभाव का प्रतियोगी यहाँ आलोक-ज्ञान है जिसे मन के द्वारा ग्रहण करते हैं । जिस वस्तु का अभाव होता है वह वस्तु उस अभाव का प्रतियोगी समझी जाती है । अभाव को धर्मी कहेंगे । आलोकज्ञानाभाव धर्मी है, आलोक-ज्ञान प्रतियोगी । जो इन्द्रिय प्रतियोगी का ग्रहण कर सकती हैं वही धर्मी का भी ग्रहण कर सकती है । आलोकज्ञान चाक्षुष नहीं है, मन के द्वारा ही ग्राह्य होता है इसलिए आलोकज्ञानाभाव भी मानस होगा । यदि मानस है तो अन्धकार का लक्षण आलोकज्ञानाभाव कैसे होगा ? अन्धकार तो चाक्षुष पदार्थ है न ? ] इस प्रकार अन्धकार के विषय में प्रभाकर का सिद्धान्त भी समाप्त हुआ । ]
( १३. अन्धकार के विषय में वैशेषिक-मत ) तस्मादालोकाभाव एव तमः । न च विधिप्रत्ययवेद्यत्वेनाभावत्वायोग इति सांप्रतम् । प्रलयविनाशावसानादिषु व्यभिचारात् । न चाभावे भाव