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सर्वदर्शनसंग्रहे
४. पृथिवी - स्पर्शादि आठ, वेग, गुरुत्व, द्रवत्व, रूप, रस तथा गन्ध ( १४ गुण ) । ५. जीवात्मा - बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग, विभाग, भावना नामक संस्कार, धर्म तथा अधर्म ( १४ गुण )
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५ क. ईश्वर - संख्यादि पांच, बुद्धि, इच्छा, प्रयत्न ( ८ गुण) । ६. आकाश – संख्यादि पाँच, शब्द ( ६ गुण ) 1 ७-८ काल और दिशा - संख्यादि पाँच ( ५ गुण ) ।
९ मनस् – परत्व, अपरत्व, संख्यादि पांच तथा वेग ( ८ गुण ) । दूसरे विकल्प में यह कहा गया है कि गुण द्रव्यों में रहता है जब कि अन्धकार में कोई गुण नहीं । फिर अन्धकार को किस आधार पर द्रव्य मानेंगे ? जब द्रव्य ही नहीं तो दशम द्रव्य होने की बात कहाँ से आयेगी ? दरवाजे के भीतर ही आना कठिन है, सभापति होने का स्वप्न कहाँ से देख रहे हैं ?
ननु तमालश्यामलत्वेनोपलभ्यमानं तमः कथं निर्गुणं स्यादिति चेत्तदसारम् । गन्धादिव्याप्तस्य नीलरूपस्य तन्निवृत्तौ निवृत्तेः ।
अथ नीलं तम इति गतेः का गतिरिति चेत्-नीलं नभ इतिवद् भ्रान्तिरेवेत्यलं वृद्धवीवधया । अत एव नारोपितरूपं तमः । अधिष्ठानप्रत्ययमन्तरेणाऽऽरोपायोगात् । बाह्यालोक सहकारिरहितस्य चक्षुषो रूपा रोपे सामर्थ्यानुपलम्भाच्च ।
अब आप यह पूछ सकते हैं कि तमालवृक्ष के समान श्यामल-रूप में पाये जानेवाले अन्धकार को आप निर्गुण कैसे कहते हैं ? यह प्रश्न निस्सार है, क्योंकि गन्ध, रस आदि गुणों से व्याप्त जो नीलरूप है वह व्यापक ( गन्धादि गुणों) के नष्ट होते ही स्वयं भी नष्ट हो जाता है । [ जहाँ-जहाँ नीलरूप है वहाँ वहाँ गन्ध, रस आदि गुण हैं जैसे प्रियंगु की कलिका आदि 1 यह व्याप्ति हुई । यहाँ नीलरूप व्याप्य है, गन्धादि व्यापक । व्यापक का यदि अभाव हो तो उस स्थान पर या उस द्रव्य में व्याप्य का भी तो अभाव होगा । अन्धकार में व्यापक ( गन्ध, रस, स्पर्श आदि गुण ) मिलते ही नहीं, इसलिए व्याप्य अर्थात् नीलरूप भी अन्धकार में नहीं ही है - यह सिद्ध हुआ । ]
अब यह पूछा जा सकता है कि [ यदि 'नीलरूपं तमः' नहीं कहकर नीलं तमः ' अर्थात् ] अन्धकार नीला होता है, ऐसा कहें तो क्या हानि है ? यह वाक्य ठीक उस वाक्य की तरह भ्रान्तिपूर्ण है जब हम कहते हैं कि आकाश नीला है । ( वस्तुतः आकाश शून्य है किन्तु भ्रम से नीला प्रतीत होता है ] वृद्धों ( भाट्टमीमांसकों और वेदान्तियों) के दोषों की अधिक आलोचना ( वीवधा = दोषालोचन ) करना व्यर्थ है ।
( २ ) इसीलिए [ श्रीधराचार्य की यह मान्यता कि ] 'अन्धकार वह है जिस पर रूप का आरोपण ( Imposition ) हुआ है' भी ठीक नहीं । [ इसीलिए = चूँकि अन्धकार