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सर्वदर्शनसंग्रहे
न चासौ शरीरक्रियाकार्यः । तदा तस्य निष्क्रियत्वात् । नापि हस्तक्रियाकार्यः व्यधिकरणस्य कर्मणो विभागकर्तृत्वानुपपत्तेः । अतः पारिशेष्यात् कारणाकारण विभागस्तस्य कारणमङ्गीकरणीयम् ।
शरीर और आकाश का विभाग शरीरगत क्रिया का कार्य नहीं माना जा सकता, क्योंकि उस समय शरीर निष्क्रिय ही रहता है । [ तात्पर्य यह है कि शरीर और आकाश का विभाग हस्ताकाश विभाग से ही उत्पन्न होता है | शरीरस्थित क्रिया से इसकी उत्पत्ति नहीं मानी जा सकती । हस्ताकाशविभाग होने पर हाथ ही सक्रिय रहता है शरीर तो निष्क्रिय ही रहता है, क्योंकि अवयवी ( शरीर ) तभी सक्रिय होता है जब सभी अवयव सक्रिय होते हैं । देखिये पहले की टिप्पणी । ]
शरीराकाश-विभाग को हस्त-कर्म का भी कार्य नहीं कह सकते । [ जिस प्रकार हस्ताकाश - विभाग हस्त की क्रिया के कारण होता है वैसे ही हस्तक्रिया से ही शरीराकाश-विभाग क्यों नहीं हो जाता ? यही शंका है । ] दूसरे आधार में रहनेवाला ( व्यधिकरण ) कर्म किसी दूसरे स्थान में विभाग उत्पन्न नहीं कर सकता । [ अभिप्राय यह है कि क्रिया अपने आश्रय में ही अपना कार्य करती है दूसरे के आश्रय में नहीं । नहीं तो अतिप्रसंग नामक दोष होगा । यहाँ पर क्रिया हाथ में रहे और उसका कार्य - विभाग - शरीर में रहे, ऐसा कहना कठिन है । कार्य और कारण का समानाधिकरण रहना परमावश्यक है । ]
इस प्रकार केवल ही विकल्प बच रहने से कारणाकारण विभाग को ही हम उस ( शरीराकाश-विभाग ) का कारण मान सकते हैं ।
( १२. अन्धकार का विवेचन ) १
दवादि- 'अन्धकारादौ भावत्वं निषिध्यते' इति तदसंगतम् । तत्र चतुर्धा विवादसम्भवात् । तथाहि - द्रव्यं तम इति भाट्टा वेदान्तिनश्च भणन्ति । आरोपितं नीलरूपमिति श्रीधराचार्याः । आलोकज्ञानाभावः इति प्राभाकरेकदेशिनः । आलोकाभाग इति नैयायिकादय इति चेत्
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ऊपर जो आपने कहा कि अन्धकार आदि को भाव नहीं मानते ( देखिये - इसी दर्शन के अनु० ४ का अन्तिम भाग ) - यह बिल्कुल असंगत है, क्योंकि अन्धकार के प्रश्न
१. अन्धकार के विषय में वैशेषिक-मत की श्रेष्ठता श्रीहर्ष ने भी नेषधचरित में शब्द - च्छल से स्वीकार की है । नारायणी टीका में इसका व्याख्यान देखें। श्लोक है
ध्वान्तस्य वामोरु विचारणायां वैशेषिकं चारु मतं मतं मे ।
औलूकमाहुः खलु दर्शनं तत्क्षमं तमस्तत्त्वनिरूपणाय || ( २२।३६ )
चूंकि उलूक ही अन्धकार का विश्लेषण करने में समर्थ होता है इसलिए दर्शन का ही नाम 'लूक' हो गया ।