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औलूक्य-दर्शनम्
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( ५ ) अदृष्टयुक्त आत्मा के संयोग | णुगत क्रिया का नाश से द्रव्य के आरम्भ के अनुकूल क्रिया (६) अदृष्टयुक्त आत्मा के संयोग से (६) विभाग
द्रव्यारम्भ के अनुकूल क्रिया (७) पूर्वसंयोग का नाश
(७) विभाग (८) आरम्भक-संयोग
(८) पूर्वसंयोग का नाश (९) द्वयणुक की उत्पत्ति । (९) द्रव्यारम्भक-संयोग
(१०) अन्त में रक्तादि की (१०) द्वयणुक की उत्पत्ति उत्पत्ति ।
| (११ ) अन्त में रक्तादि की उत्पत्ति । ( ११ क. विभागज विभाग का दूसरा भेद ) द्वितीयस्तु हस्ते कर्मोत्पन्नम् अवयवान्तराद्विभागं कुर्वत् आकाशादिदे. शेन्यो विभागानारभते। ते कारणाकारणविभागाः कर्म यां दिशं प्रति कार्यारम्माभिमुखं तामपेक्ष्य कार्याकार्यविभागमारभन्ते। यथा हस्ताकाशविभागाच्छरीराकाशविभागः।। ___विभागज विभाग का दूसरा भेद ( कारणाकारण विभाग से उत्पन्न विभाग ) वह है जिसमें हाथ में उत्पन्न होनेवाली क्रिया दूसरे अवयवों से विभाग करती हुई आकाशादि देशों से विभाग आरम्भ करती है। [ हाथ का सम्बन्ध घट, पट, तरु आदि से होता है, इन पदार्थों से विभाग उत्पन्न होता है। हाथ शरीर का अवयव होने के कारण शरीर का कारण है, किन्तु आकाश आदि शरीर के कारण नहीं हैं। हाथ से विभाग होना कारण-विभाग है, आकाश से विभाग होना अकारण-विभाग है, दोनों का कारण और अकारण का-पारस्परिक विभाग ही शरीर का आकाशादि से विभाग उत्पन्न करता है।
जिस दिशा में क्रिया कार्यारम्भ के लिए अभिमुख दिखलाई पड़ती है उसी दिशा की अपेक्षा रखते हुए कारण और अकारण के ये विभाग कार्य और अकार्य के विभाग उत्पन्न करते हैं। उदाहरण के लिए हाथ और आकाश का विभाग उत्पन्न होने पर शरीर और आकाश का विभाग उत्पन्न होता है।
विशेष हाथ कारण और शरीर कार्य है। उसी प्रकार आकाश अकारण तथा अकार्य है। इसलिए
कारण+अकारण का विभाग>कार्य+अकार्य का विभाग,
जैसे, हस्त+आकाश का विभाग>शरीर + आकाश का विभाग। ये विभाग कर्म के अनुरूप ही होते हैं । उत्तर में चला हुआ हाथ दक्षिण आकाशदेश से विभाग उत्पन्न करता है। वैसे ही पूर्व में चला हुआ हाथ पश्चिम-आकाश मे विभाग उत्पन्न करता है।