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सर्वदर्शनसंग्रहे
पर तात्पर्य - टीका लिखी। ये मिथिला के निवासी थे तथा सभी शास्त्रों में इनकी प्रतिभा चमकती थी । तात्पर्यटीका की प्रसिद्धि का एक प्रबल प्रमाण है कि वाचस्पति को 'तात्पर्याचार्य' का ही नाम दे दिया गया । उसके बाद न्यायसूत्रों पर न्यायमञ्जरी नामक वृत्तिटीका लिखनेवाले जयन्तभट्ट ( ८८० ई० ) आते हैं जिन्होंने विरोधियों के तर्कों का खण्डन करते हुए प्रबल प्रमाणों से न्यायदर्शन की विवेचना की है । न्यायदर्शन में सबसे अधिक विषयों का विश्लेषण इसी में है । भासर्वज्ञ ( ९२५ ई० ) ने न्यायसार लिखा जिसके विषय भी न्यायमञ्जरी को तरह के ही हैं । न्यायदर्शन की इस धारा के सबसे बड़े रत्न उदयनाचार्य ( ९८४ ई० ) थे जिन्होंने वाचस्पति की तात्पर्यटीका पर तात्पर्यपरिशुद्धि, ईश्वर की सिद्धि के लिए न्यायकुसुमाञ्जलि' और बौद्धों के खण्डन के लिए आत्मतत्त्वविवेक ( या बौद्धा धिक्कार ) – ये तीन प्रसिद्ध पुस्तकें लिखीं। पिछली दोनों पुस्तकें कई टीकाओं अलंकृत हैं ।
अभी तक न्यायदर्शन में प्रमाण के साथ प्रमेय पर भी विचार-विमर्श हो रहा था । बौद्धों के तर्कों से नेयायिक लोग परेशान हो उठे थे- इसीलिए एक नई धारा चल पड़ी जिसमें प्रमाणों के विश्लेषण तथा बुद्धिवाद पर अधिक जोर दिया गया। सूक्ष्मता के लिए नये प्रकार के शब्दों— जैसे, अवच्छेदक ( व्याप्त करनेवाला), अवच्छिन्न ( व्याप्त), प्रकारतानिरूपित ( विशेषण के द्वारा विशिष्ट ), निष्ठता ( अभेद - सम्बन्ध ) आदि - का प्रयोग होने लग गया । इस भाषा का चाकचिक्य इतना प्रभाव डालने लगा कि न्याय तो न्याय, दूसरे दर्शनों और शास्त्रों में भी इस तरह की भाषा का बेधड़क व्यवहार होने लगा । न्याय की इस धारा को पुरानी धारा से पृथक् करने के लिए नव्य-न्याय कहां गया और गौनम से लेकर उदयन तक को प्राचीन न्याय की शब्दावली से विभूषित किया गया ।
नत्र्यन्याय के प्रवर्तक गङ्गेश उपाध्याय ( ११७५ ई० ) थे जिन्होंने तत्त्वचिन्तामणि लिखकर प्रमाणशास्त्र का वीजवपन किया। ये मिथिला के निवासी थे जहाँ न्याय की धूम मच गई। गंगेश के पुत्र वर्धमान ने चिन्तामणि पर 'प्रकाश' नाम की टीका लिखी । इसके बाद से गंगेश के ग्रन्थोंकी टीका ही पाण्डित्य को कसोटी मानी जाने लगी । जयदेव मिश्र ( या पक्षधर मिश्र १२७८ ई० ) ने तत्त्वालोक- टीका लिखी । नव्यन्याय का प्रसार नवद्वीप (बंगाल) में वामुदेव सार्वभौम ( १२७५ ई० ? ) ने किया । ये चैतन्य के समकालिक थे तथा इन्होंने तत्त्वचिन्तामणि पर अपनी टीका की थी । इनके बहुत से शिष्य हुए जिनमें रघुनाथ भट्टाचार्य ( १३०० ई० ) अत्यन्त प्रसिद्ध थे । इन्होंने तत्त्वचिन्तामणि पर तत्त्वदीधिति टीका लिखी जो कालान्तर में स्वतन्त्र ग्रन्थ बन गई तथा जिस पर ही टीका लिखना पाण्डित्य माना गया । मथुरानाथ तर्कवागीश ने आलोक, चिन्तामणि तथा
१. उदयनाचार्य ने भक्त के रूप में ईश्वर का उपालम्भ किया हैऐश्वर्यमदमत्तोऽसि मामवज्ञाय वर्तसे ।
पराक्रान्तेषु बौद्धेषु मदधीना तव स्थितिः ॥