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प्रत्यभिज्ञा-वर्शनम् आत्मा च विश्वज्ञाता कर्ता च । तस्मादीश्वरोऽयम्' इति । अवयवपञ्चकस्याश्रयणं मायावदेव नेयायिकमतस्य कक्षीकारात् ।।
उसे सिद्ध करने के लिए यह प्रयोग ( अनुमान ) है-(१) यह आत्मा परमेश्वर बनने में समर्थ है । ( २ ) क्योंकि इसके पास ज्ञान और क्रिया की शक्तियां हैं । ( ३ ) जो जितनी चीजों का ज्ञाता और कर्ता होता है वह उतनी चीजों के लिए ईश्वर ( स्वामी ) है, जैसे संसार-प्रसिद्ध ईश्वर ( मंडलेश्वर, नरेश आदि ) हैं या राजा लोग होते हैं । ( ४ ) आत्मा संसार का ज्ञाता और कर्ता है। (५) इसलिए यह आत्मा ईश्वर है।' इन पांच अवयवोंवाले (परार्थानुमान ) का आश्रय लेते समय नैयायिकों के सिद्धान्त को स्वीकृत किया गया है ( या नैयायिकों से पंचावयव अनुमान लिया है ) जिस प्रकार माया का विचार [ हमने अद्वैतवेदान्त से लिया है ] । तदुक्तमुदयाकरसूनुना७. कर्तरि ज्ञातरि स्वात्मन्यादिसिद्ध महेश्वरे ।
अजडात्मा निषेधं वा सिद्धि वा विदधीत कः ॥ ८. कि तु मोहवशादस्मिन्दृष्टेऽप्यनुपलक्षिते ।
शक्त्याविष्करणेनेयं प्रत्यभिज्ञोपदर्श्यते ॥ जैसा कि उदयाकर के पुत्र ने कहा है-(प्रश्न है कि ) जब हम जानते हैं कि कर्ता और ज्ञाता के रूप में जो यह जीवात्मा है वह आदि-सिद्ध महेश्वर ही है, तो फिर कौन ऐसा विवेकशील ( अजड़ात्मा) व्यक्ति है जो इस ईश्वर का [ जीवात्मा में ] निषेध करे या सिद्धि करे ? [ तात्पर्य यह है कि जब स्वात्मा और महेश्वर की एकता अनादि काल से सिद्ध है तब हमें इस प्रश्न पर तनिक भी प्रयास करने की आवश्यकता नहीं-न तो हम जीवात्मा में ईश्वर का निषेध कर सकते हैं, क्योंकि ऐसा करने से सिद्ध वस्तु का खण्डन होगा और न ही इसकी सिद्धि की आवश्यकता है। क्योंकि स्वयंसिद्ध वस्तु को पुनः सिद्ध करना निरर्थक है । कम-से-कम विवेकी व्यक्ति तो ऐसा नहीं करते । ] ॥ ७ ॥
[इसका उत्तर यह होगा-] 'यद्यपि स्वात्मा में ईश्वर के दर्शन होते हैं ( ईश्वर का स्वरूप-चैतन्य कुछ दृष्टिगोचर होता है ), किन्तु मोह या माया के कारण यह स्पष्टतः उपलक्षित ( दिखलाई ) नहीं होता। इसलिए शक्ति का ( ज्ञानशक्ति और क्रियाशक्ति का) प्रतिसंधान ( सम्बन्ध स्थापना) करने के लिए इस प्रत्यभिज्ञा का प्रदर्शन होता है। [प्रत्यभिज्ञा के द्वारा ही जीवात्मा में विद्यमान ज्ञानशक्ति और क्रियाशक्ति का सम्बन्ध
१. इन पाँच वाक्यों में क्रमशः प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय और निगमन के वाक्य हैं । न्यायशास्त्र के अनुसार ही ये पांचों वाक्य दूसरे शास्त्रों में भी प्रयुक्त होते हैं । कहा है-न्यायमूलं सर्वशास्त्रम् ।