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सर्वदर्शनसंग्रहे
ईश्वर को ज्ञानशक्ति और क्रियाशक्ति के साथ कर लेते हैं तथा दोनों के बीच अद्वैत-तत्त्व की स्थापना सम्भव होती है। इसीलिए प्रत्यभिज्ञा आवश्यक है। ' ॥ ८ ॥
विशेष-सायण-माधव को पुरानी बीमारी फिर उत्पन्न हो गयी है । शैव-दर्शन में . जिस प्रकार एक-एक बात कहकर उसकी पुष्टि के लिए प्रमाणों का अम्बार लगा रहे थे, अब यहाँ भी अनेक उद्धरणों के द्वारा अपनी सुप्रतिपादित बातों का पुनः प्रतिपादन करते हैं । क्यों न हो-द्विर्बद्ध सुबद्ध' भवति = दो बार बाँध देने पर अच्छी तरह बंध जाता है ।
( ५. ज्ञानशक्ति और क्रियाशक्ति ) तथा हि
९. सर्वेषामिह भूतानां प्रतिष्ठा जीवदाश्रया।
ज्ञानं क्रिया च भूतानां जीवतां जीवनं मतम् ।। १०. तत्र ज्ञानं स्वतःसिद्ध क्रिया कार्याश्रिता सती।
परैरप्युपलक्ष्येत तथान्यज्ञानमुच्यते ॥ इति । ११. या चैषां प्रतिभा तत्तत्पदार्थक्रमरूपिता।
___ अक्रमानन्दचिद्रूपः प्रमाता स महेश्वरः ॥ इति च । जैसा कि इन श्लोकों से प्रकट है-'इस लोक में सभी प्राणियों की प्रतिष्ठा ( स्थिति ) जीव पर ही आश्रित है; जीवित प्राणियों का जीवन भी उनके ज्ञान और क्रिया पर निर्भर करता है ॥ ९ ॥ अब उन दोनों शक्तियों में ज्ञान तो स्वतः सिद्ध है ( ज्ञान का अनुभव अपने आप में ही व्यक्ति करता है, दूसरे लोग किसी के ज्ञान को नहीं जान पाते ) किन्तु क्रिया कार्यों पर निर्भर करती है, इसलिए दूसरे लोग भी इसे जान लेते हैं ( स्वयं को तो क्रिया मालूम रहती ही है )। इसी प्रकार दूसरों के ज्ञान को भी जाना जा सकता है (जब कि वह कार्य के रूप में परिणत हो) ॥१०॥ ____और भी कहा है-'इन जीवों में जो यह ज्ञानशक्ति ( प्रतिभा ) है [ वह देश, काल और वस्तु की उपाधियों के द्वारा सीमित है ] वह विभिन्न ज्ञेय पदार्थों का पता लगाने पर उसी क्रम से निरूपित है। यही ज्ञानशक्ति प्रमाता ( सर्वज्ञ ) महेश्वर है जब कि [ उपाधियों से रहित होने पर ] क्रम से रहित, आनन्द और चित् के रूप में यह प्रकट होती है। [ जीव के ज्ञान में उपाधियाँ हैं, ईश्वर की ज्ञानशक्ति निरुपाधिक है, आनन्दस्वरूप है और चिद्रूप है। यह शुद्ध ज्ञानशक्ति है। ] ॥ ११ ॥ सोमानन्दनाथपादैरपि
सदा शिवात्मना वेत्ति सदा वेत्ति मदात्मना । इत्यादि । ज्ञानाधिकारपरिसमाप्तावपि१२. तदैक्येन विना नास्ति संविदां लोकपद्धतिः।
प्रकाशैक्यात्तदेकत्वं मातकः स इति स्थितिः ॥