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औलूक्य-दर्शनम्
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जाति को पृथिवी जाति कहते हैं । [ पाक = तेज का संयोग । इसी से पृथिवी में रूपादि गुणों का परावर्तन (Reflection ) होता है । जिस प्रकार पके हुए आम के फल में पीरूप आदि परावृत्त होते हैं उसी प्रकार पृथिवी में भी उक्त क्रिया होती है । यह बात जलादि द्रव्यों में नहीं पायी जाती । जल में अग्नि-संयोग होने पर भले ही उष्ण-स्पर्श का अनुभव होता है किन्तु जल में स्वतः विद्यमान शोत सर्श का परावर्तन नहीं होता । जल में प्रविष्ट होनेवाले अग्नि- कणों के साथ-साथ ही उष्णता स्थित है, जल के साथ नहीं । उगता की प्रतीति होने के समय भी जल वास्तव में शीतल ही है । उस समय शीतस्पर्श का भान नहीं हो रहा है, यह दूसरी बात है । उक्त लक्षण में 'पाकज-रूप- समानाधिकारण' यह विशेषण लगाने से जलत्व आदि में अतिव्याप्ति नहीं होती । यहाँ यह स्मरणीय है कि जिस जाति का लक्षण करना अभीष्ट हो उससे भिन्न सभी जातियों को पृथक् कर देना चाहिए | ये पृथक् करने योग्य जातियाँ दो प्रकार की हो सकती हैं- - या तो लक्ष्य ( Defined ) जाति के समानाधिकरण हों या उससे व्यधिकरण हों । सजातीय-विजातीय पदार्थों से पृथक् करके लक्ष्य को लक्षित करना ही लक्षण का काम है । समानाधिकरण जातियाँ भी दो प्रकार की होती हैं— कुछ ऐसी हैं जो लक्ष्य की जाति के द्वारा व्याप्त होती हैं और कुछ उन्हें ही व्याप्त करती हैं । अस्तु, यहाँ 'पाकजरूप- समानाधिकरण के पृथिवीत्व से व्यधिकरण में पड़नेवाली जलत्व आदि सारी जातियों की व्यावृत्ति होती है । जो दो प्रकार की ( व्याप्य + व्यापक ) 'समानाधिकरण' जातियाँ हैं उनकी व्यावृत्ति ( Exclusion ) 'द्रव्यत्व के द्वारा सीधे व्याप्य' इस विशेषण से होती है । पृथिवीत्व को व्याप्त करनेवाली जातियाँ हैं - द्रव्यत्व ( जो सीधे व्याप्त करती है) और सत्ता ( जो परम्परा से व्याप्त करती है ) । ये दोनों ही द्रव्यत्व के द्वारा व्याप्त नहीं होतीं, क्योंकि व्याप्त करने के लिए अधिक क्षेत्र होना चाहिए। दूसरी ओर, पृथिवीत्व के द्वारा व्याप्त होनेवाली घटत्व आदि जातियाँ हैं जो द्रव्यत्व के द्वारा व्याप्त होती तो हैं पर सीधे नहीं । द्रव्यत्व पहले पृथिवीत्व को व्याप्त करता है फिर घटत्व को । इस प्रकार लक्षण के पद अन्य जातियों को व्यावृत्त करते हैं । ]
अप्-सामान्य का लक्षण – जलत्व ऐसा सामान्य है जो सरिताओं और सागरों में समवेत हो किन्तु ज्वलन से समवेत न हो । [ सरिताओं और सागरों के साथ जल का समवाय- सम्बन्ध होता है । इस विशेषण का प्रयोग होने से उन जातियों की व्यावृत्ति होती है जो जलत्व से व्यधिकरण में हैं, जैसे पृथिवीत्व आदि । इसके साथ सरिताओं - सागरों का संयोग भले ही हो, समवाय नहीं हो सकता । इसी विशेषण से उन जातियों की भी व्यावृत्ति ( निरास Exclusion ) होती है जो जलत्व के द्वारा व्याप्त हो सकती है, जैसेसरित्त्व, सागरत्व आदि । सरित से सरित्त्व भले ही समवेत हो, क्योंकि वह उसकी जाति है, किन्तु सागरत्व तो नहीं होगा । उसी प्रकार सागर से सरित्त्व समवेत नहीं हो सकता । जलत्व - जाति सरित - सागर दोनों से एक ही साथ समवेत हैं जबकि सरित्व और सागरत्व २३ स० सं०