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औलुक्य-दर्शनम् द्वित्व के नाश के विषय में भी दोनों के मत विरोधी ही हैं। मीमांसकों के अनुसार दो घटों के वियुक्त होने पर द्वित्व का नाश होता है, जब कि वैशेषिक अपेक्षाबुद्धि को भी लगाकर कई अवस्थाओं के बाद विनाश मानते हैं। वैशेषिक की द्वित्वोत्पत्ति और द्वित्वनिवृत्ति अभी आगे वर्णित है। आठ क्षणों में उत्पत्ति और उतने ही क्षणों में निवृत्ति ( नाश ) भी होती है । इनका वर्णन देखें।
( ९ क. द्वित्व की उत्पत्ति का क्रम ) तत्र प्रथममिन्द्रियार्थसंनिकर्षः (१)। तस्मादेकत्वसामान्यज्ञानम् (२)। ततोऽपेक्षाबुद्धिः ( ३ )। ततो द्वित्वोत्पत्तिः ( ४ )। ततो द्वित्वत्वसामान्यज्ञानम् ( ५ )। तस्माद् द्वित्वगुणज्ञानम् ( ६ )। ततो 'द्वे द्रव्ये' इति धीः ( ७ )। ततः संस्कारः (८)। तदाह४. आदाविन्द्रियसंनिकर्षघटनादेकत्वसामान्यधी
रेकत्वोभयगोचरा मतिरतो द्वित्वं ततो जायते । द्वित्वत्वप्रमितिस्ततो नु परतो द्वित्वप्रमाऽनन्तरं
द्वे द्रव्ये इति धीरियं निगदिता द्वित्वोदयप्रक्रिया ॥ इति ॥ सबसे पहले इन्द्रियों के साथ वस्तु ( Object ) का संनिकर्ष ( सम्बन्ध ) होता है (प्रथम क्षण में घटों के साथ चक्षुओं का सम्बन्ध होता है । उसके बाद दूसरे क्षण में एकत्व की जाति का ज्ञान होता है । तीसरे क्षण में अपेक्षाबुद्धि होती है [ कि यह एक घट है, यह दूसरा ] चौथे क्षण में द्वित्व की उत्पत्ति होती है (= वस्तु में द्वित्व संख्या का बोध होता है ) । पाँचवें क्षण में द्वित्वत्व की जाति का ज्ञान होता है। [ चूंकि जाति का ज्ञान होने पर व्यक्ति का ज्ञान होता है, इसीलिए अब ] छठे क्षण में द्वित्व संख्या ( गुण के रूप में ) का ज्ञान होता है। इसके बाद सातवें क्षण में 'ये दो द्रव्य हैं' इस प्रकार [ द्वित्व-संख्या से विशिष्ट द्रव्य ] का ज्ञान होता है। अन्त में आत्मा में उक्त ज्ञान से संस्कार उत्पन्न होता है। [ इन आठों क्षणों में उत्पन्न पदार्थों में पहलेवाला पदार्थ दूसरे का कारण होता है । बौद्धों के द्वादश निदान की तरह ये शृंखलाबद्ध हैं। इसीलिए इन्हें इस क्रम में बांधा गया है।]
यही कहा गया है-"सबसे पहले इन्द्रियों के साथ [ वस्तु का ] संनिकर्ष होना, फिर एकत्व की जाति की बुद्धि ( ज्ञान ) होना, फिर दोनों वस्तुओं में एकत्व का अलग-अलग बोध करानेवाली बुद्धि ( अपेक्षाबुद्धि ) की उत्पत्ति, फिर द्वित्व की उत्पत्ति, उसके बाद द्वित्वत्व का ज्ञान, उसके बाद द्वित्व का ज्ञान, तब दो द्रव्यों की बुद्धि होना, [ फिर द्वित्व का संस्कार ]-इस प्रकार द्वित्व की उत्पत्ति की विधि बतलाई गयी है।"
द्वित्वादेरपेक्षाबुद्धिजन्यत्वे किं प्रमाणम् ? अत्राहुराचार्याः-अपेक्षाबुद्धिद्वित्वादेरुत्पादिका भवितुमर्हति । व्यञ्जकत्वानुपपत्तौ तेनानुविधीय