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औलूक्य-दर्शनम्
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से सम्बद्ध है । नैयायिकों का सिद्धान्त पिठरपाक प्रक्रिया के नाम से प्रसिद्ध है (पिठर : पिण्ड या अवयवी जैसे घट ) 1
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प्रस्तुत प्रसंग में वैशेषिकों की पीलुपाक-प्रक्रिया ही महत्त्वपूर्ण है । अतः उसी का विश्लेपण समीचीन है । सामान्यतः तेजःसंयोग के कारण घट के अवयवों या कपालों (घट के टुकड़ों) के पारस्परिक वियोग से घट ( अवयवी ) का नाश होता है । इन कपालों के अवयवों के भी वियोग या विनाश से इनका नाश होता है । इस प्रकार का नाश त्र्यणुक तक ही होता है । द्व्यणुक का नाश इसके अवयवों के नाश से नहीं होता, प्रत्युत दो परमाओं के पारस्परिक वियोग से होता है, क्योंकि परमाणु नित्य होने के कारण नष्ट नहीं हो सकते । हाँ, एक दूसरे से वे पृथक हो सकते हैं । अब इन परमाणुओं के पृथक् होने से इनके पहले के रूप, रस आदि गुण नष्ट हो जाते हैं तथा दूसरे ही रूप, रस आदि उत्पन्न होते हैं । अब इन परमाणुओं से क्रमशः द्व्यणुक, त्र्यणुक आदि के क्रम से नवीन घट उत्पन्न होता है ।
मुक्तावली ( भा० प० १०५ की टीका ) में इस प्रकार कहा गया है— पृथिवी - द्रव्य में भो केवल परमाणु में ही पाक होता है, ऐसा वैशेषिक लोग कहते हैं। उनका यह अभिप्राय है - अवयवी ( घट ) के द्वारा निरुद्ध ( सम्बद्ध ) अवयवों में पाक का होना सम्भव नहीं । हाँ, अग्नि के संयोग से अवयवियों के नष्ट हो जाने पर प्रत्येक अवयव के स्वतन्त्र परमाणुओं में पाक होता है । फिर पक्व ( पाक होने के बाद, तेजः संयोग से रूपादि-परावृत्त होने पर ) परमाणुओं के संयोग से द्वयगुणादि के क्रम से = घट ) पर्यन्त उत्पत्ति होती है । अग्नि-पदार्थ में अतिशय वेग होने के कारण पहले के व्यूह ( अवयव - समूह के रूप में घट ) का नाश होकर तुरन्त दूसरे व्यूह की उत्पत्ति हो जाती है ।'
महान् अवयवी (
एक द्वणुक का नाश होने पर दूसरा द्व्यणुक कितने क्षणों में उत्पन्न होता है, इस प्रश्न को लेकर वैशेषिकों के यहाँ क्षणप्रक्रिया चलती है । विभागज विभाग को स्वीकार करने पर इसमें दस क्षण लगते हैं, किन्तु उसे अस्वीकार करें तो केवल नव क्षणों में काम हो जाता है । कुछ दूसरे मतों से इसमें पाँच, छह, सात, आठ या ग्यारह क्षण भी होते हैं । उन सबों का विवेचन मुक्तावली के उपर्युक्त स्थल पर हुआ है ।
इस स्थान पर नवंक्षण-प्रक्रिया की चर्चा चल रही है । ऊपर तीन क्षण हम देख चुके हैं। चौथे क्षण के लिए आगे देखें ।
उत्पन्नेषु रक्तादिषु अदृष्टवदात्मसंयोगात्परमाणौ द्रव्यारम्भणाय क्रिया । तथा पूर्वदेशाद्विभागः । विभागेन पूर्वदेशसंयोगनिवृत्तिः । तस्मिन्निवृत्ते परमाण्वन्तरेण संयोगोत्पत्तिः । संयुक्ताभ्यां परमाणुभ्यां द्वघणुकारम्भः । आरब्धे द्वद्यणुके कारणगुणादिभ्यः कार्यगुणादीनां रूपादीनामुत्पत्तिरिति यथाक्रमं नव क्षणाः ।