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औलूक्य-दर्शनम्
. ३६५ जाता है । कारण का नाश कार्य ही करता है, पिता का वध पुत्र के ही हाथों से होता है। ठीक इसी प्रकार प्रथम क्षण में उत्पन्न ज्ञान द्वितीय क्षण में दूसरे ज्ञान को या संस्कार को उत्पन्न करता है और बदले में उत्तरवर्ती कार्यरूप ज्ञान या संस्कार अपने उत्पादक का ही विनाश कर डालता है। इसलिए ज्ञान को ज्ञान ही खा जाता है। ]
[ ऊपर यह कह चुके हैं कि अपेक्षाबुद्धि का नाश हो जाने पर द्वित्व का नाश हो जाता है। अब द्वित्वनाश की एक दूसरी विधि भी देखें- कहीं-कहीं किसी द्रव्य ( जैसे घट ) को आरम्भ करनेवाले संयोग ( = अवयवों का संयोग ) के विनाशक ( प्रतिद्वन्द्वी ) विभाग ( Disjunction ) को उत्पन्न करनेवाले कर्म के आने के समय में ही एकत्व-जाति की चिन्ता ( ज्ञान ) होती है। और तब आश्रय घट का विनाश हो जाने से द्वित्व का भी नाश हो जाता है । वस्तु के अवयवों का विभाग करनेवाला कर्म अपनी उत्पत्ति के चतुर्थ क्षण में वस्तु का नाश करता है। प्रथम क्षण में वह कर्म उत्पन्न होता है। उसी कर्म से दूसरे क्षण में वस्तु के अवयवों का विभाग होता है । तीसरे क्षण में अवयवों के संयोग का विनाश होता है । चौथे क्षण में उस वस्तु ( घट ) का ही विनाश हो जाता है । द्वित्व की उत्पत्ति का विचार करते हुए हमने आठ क्षण देखे थे जिनमें द्वितीय क्षण में एकत्व की जाति का ज्ञान उत्पन्न होता है जो अपेक्षाबुद्धि को तृतीय क्षण में उत्पन्न करता है। यह एकत्वजातिज्ञान यदि घट का विनाश करनेवाले चार क्षणों के मध्य प्रथम क्षण में हो तब स्वभावतः द्वितीय क्षण में अर्थात् विभाग के समय अपेक्षाबुद्धि की उत्पत्ति होगी। उसके बाद तृतीय क्षण में ( संयोग का नाश होने के समय में ) द्वित्व की उत्पत्ति होगी। चतुर्थ क्षण में ( वस्तु का नाश होने के क्षण में ) द्वित्वत्व-जाति का ज्ञान होगा। इसी क्षण में घट-रूपी आश्रय (आधार ) के नाश के कारण इसके बादवाले क्षण में दो घटों में विद्यमान द्वित्व-का विनाश हो जाता है क्योंकि घट ( द्रव्य ) के नाश के अनन्तर उसमें स्थित द्वित्व ( गुण ! ... "स्थत रहना असम्भव है। इस प्रक्रिया में अपेक्षाबुद्धि के नाश से द्वित्वनाश नहीं होता, क्योंकि द्वित्वनाश के पूर्व अपेक्षाबुद्धि के विनाश की कोई बात ही नहीं चलती।]
[ मूल में जो 'एकत्वसामान्यचिन्ता' पद है, उसका अर्थ है एकत्व-जाति का ज्ञान । अब इस एकत्वजातिज्ञान को यदि आप पहले ही रख लें-विभाग-जनक कर्म के पहले ही एकत्व जाति का ज्ञान हो जाय तब स्वभावतः उसके बाद आनेवाली अपेक्षाबुद्धि प्रथम क्षण में ही ( विभागोत्पादक कर्म के समय में ही ) उत्पन्न होगी। द्वितीय क्षण में (विभाग के समय ) द्वित्व की उत्पत्ति तथा तृतीय क्षण में ( संयोगनाश के समय ) द्वित्वत्वजाति का ज्ञान होगा। चतुर्थ क्षण में ( घटनाश के समय ) अपेक्षाबुद्धि का नाश होगा। इस क्षण में ( चतुर्थ क्षण में) घट-रूपी आश्रय का नाश तथा अपेक्षाबुद्धि का नाश दोनों कारणों से उसके उत्तर क्षण में द्वित्व का नाश होता है। इसे ही कहा जा रहा है-] और यदि