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औलूक्य-दर्शनम्
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कोई मतलब ही नहीं रहता । ऊपर कह चुके हैं कि सत्ता द्रव्य, गुण, कर्म तीनों में रहती है । इसलिए सत्ता के द्वारा सीधा सम्बन्ध कर्मत्व का है। कर्म के भेदों --आकुंचन, प्रसारण आदि - को सत्ता परम्परा से व्याप्त करती है, पहले कर्मत्व को व्याप्त करती है, तब भेदों को ।
सामान्य - ( Generality ) उसे कहते हैं जो प्रध्वंस ( विनाश ) का प्रतियोगी ( अर्थात् विनाशी Destructible ) न हो तथा अनेक पदार्थों में समवेत ( Inherent ) हो । [ नाश का प्रतियोगी ( साथ देनेवाला, सामने पड़नेवाला ) विनाशी पदार्थ होता है, इसलिए प्रध्वंस का प्रतियोगी = विनाशी, प्रव्वंस-प्रतियोगित्व = विनाशित्व, उससे रहित अविनाशी । तात्पर्य यह है कि सामान्य का विनाश नहीं होता । जिस वस्तु की जाति मानी जाती है उसके पदार्थों के नष्ट होने पर भी जाति यथापूर्व स्थित रहती है— उसका विनाश नहीं होता । भारतीयों के मरने पर भी भारतीयता ज्यों की त्यों रहती है, घट के नष्ट होने पर भी घटत्व रहता है । दूसरे, जाति या सामान्य की स्थिति समवाय - सम्बन्ध से अनेक पदार्थों में रहती है, एक ही पदार्थ में नहीं । केवल अविनाशी होने से तो दिक्, काल आदि में भी अतिव्याप्ति हो जायगी । इन्हें व्यावृत्त ( Exclude) करने के लिए ही 'अनेकसमवेत' विशेषण लगाया गया है । दिक्, काल अनेक पदार्थों में नहीं रहते जब कि घटत्व एक ही साथ संसार के सारे घटों में है । ]
विशेष - ( Particularity ) वह है जो समवाय- सम्बन्ध से अवस्थित हो तथा जो अन्योन्याभाव का विरोध करनेवाले सामान्य से रहित हो । अन्योन्याभाव उस अभाव को कहते हैं जब एक दूसरे में एक दूसरे का अभाव होता है, घट और पट का पारस्परिक भेद अन्योन्याभाव है | परमाणुओं में जो आपस में भेद है वह भी अन्योन्याभाव है । इस भेद को समझने के लिए विशेष की आवश्यकता है । अन्योन्याभाव का विरोध करनेवाले सामान्य इसमें नहीं रहते । सामान्य से रहित होने से द्रव्य, गुण और कर्म से इसका पार्थक्य प्रकट होता है । अन्योन्याभाव का विरोधी कहने से सामान्य व्यावृत्ति होती है । सामान्य का सामान्य नहीं होता, यह सर्वविदित है । किन्तु यह ध्यातव्य है कि सामान्य में सामान्य का अभाव इसलिए मानते हैं कि अनवस्था - दोष न प्राप्त हो जाय, इसलिए नहीं कि वह अन्योन्याभाव का विरोध करेगा । विशेषों में एक दूसरे के साथ अन्योन्याभाव रहता है, कोई विशेष समान नहीं होता कि एक जाति में उन्हें रखें । प्रत्येक विशेष विशेष है ( Type in itself ) । यदि विशेषों की जाति होने लगे तो विशेषता उनसे छिन जायगी, समानता होने लगेगी । सामान्य और विशेष में सम्बन्ध कैसा ? सभी विशेष अन्योन्याभाव को प्रतीति कराते । इसमें सामान्य लेने से उनके इस स्वभाव की हानि होगी । इसलिए विशेषों में सामान्य का अभाव इसी से सिद्ध होता है कि इनमें सामान्य मानने से अन्योन्याभाव की प्रतीति नहीं होगी । यही कारण है कि विशेष अन्योन्याभाव का