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सर्वदर्शनसंग्रहे
तथा पुनः आवृत्तिकाल ( संस्कार करने के समय ) में विकरित होनेवाला—यह बद्ध पारद का लक्षण है।
(७. रस के अष्टादश संस्कार ) ननु हरगौरीसृष्टिसिद्धौ पिण्डस्थर्यमास्थातुं पार्यते, तसिद्धिरेव कथमिति चेत्--न । अष्टादशसंस्कारवशात्तदुपपत्तः । तदुक्तमाचार्यः१५. तस्य प्रसाधनविधौ सुधिया प्रतिकर्मनिर्मलाः प्रथमम् ।
अष्टादश संस्कारा विज्ञातव्याः प्ररत्नेन ॥ इति । [ ऐसा प्रश्न पूछ सकते हैं कि ] यदि [ पारद को ] हर और गौरी की सृष्टि सिद्ध कर देने पर शरीर को स्थिर करना सम्भव है, लेकिन इसे कैसे सिद्ध कर सकते हैं ? यह तर्क ठीक नहीं, क्योंकि [ पारद ] के अष्टादश संस्कारों से ही उसकी उपपत्ति (सिद्धि) हो जाती है। आचार्यों ने कहा है-'उस ( पारद ) के साधन की विधि में, पहले विद्वानों को, प्रयत्नपूर्वक, प्रत्येक कर्म में निर्मल करनेवाले, [ पारद के ] अठारह संस्कारों को जानना चाहिए।'
विशेष–उपर्युक्त शंका का अभिप्राय यह है-रस और अभ्रक हर-गौरी की सृष्टि है सही, यह भी ठीक है कि उन दोनों को सिद्ध कर लेने पर शरीर अजर-अमर हो जायगा, किन्तु हमारा भौतिक शरीर तो रसाभ्रक की तीव्रता को सहन नहीं कर सकेगा-इसीलिए पारद को अठारह कर्मों से संस्कृत करते हैं। इसके बाद वह शरीर के लिए सह्य बन सकता है। प्रतिकर्मनिर्मलाः = अठारह संस्कारों में एक के बाद दूसरे में पारद निर्मल से निर्मलतर होता जाता है। ते च संस्कारा निरूपिताः१६. स्वेदनमर्दनमूर्छनस्थापनपातननिरोधनियमाश्च ।
दीपनगमनग्रासप्रमाणमथ जारणपिधानम् ॥ १७. गर्भद्रुतिबाह्यद्रुतिक्षारणसंरागसारणाश्चैव ।
क्रामणवेधौ भक्षणमष्टादशधेति रसकर्म ॥ इति । तत्प्रपञ्चस्तु गोविन्दभगवत्पादाचार्य-सर्वज्ञरामेश्वरभट्टारकप्रभृतिभिः प्राचीनराचार्य निरूपित इति ग्रन्थभूयस्त्वभयादुदास्यते ।
[ रस के ] उन [ अष्टादश ] संस्कारों ( शुद्ध करने के उपायों ) का वर्णन इस प्रकार हुआ है-(१) स्वेदन, (२) मर्दन, (३) मूर्छन, (४) स्थापन, (५) पातन, (६) निरोध, (७) नियम, (८) दीपन, (९) गमन, (१०) ग्रासप्रमाण, (११) जारण, ( १२ ) पिधान, ( १३ ) गर्भद्रुति, ( १४ ) बाह्यद्र ति, (१५) क्षारण, (१६) संराग, (१७) सारण तथा ( १८ ) क्रामण और वेध करके भक्षण करना---ये रस के अठारह कर्म हैं । इनकी व्याख्या गोविन्दभगवत्पादाचार्य तथा सर्वज्ञ रामेश्वर आदि प्राचीन आचार्यों ने की है, अतः यहाँ ग्रन्थ बढ़ जाने के भय से उसे छोड़ दिया जाता है। ...