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रसेश्वर-चर्शनम् १०. कर्मयोगेण देवेशि प्राप्यते पिण्डधारणम् ।
रसश्च पवनश्चेति कर्मयोगो द्विधा स्मृतः ॥ ११. मूच्छितो हरति व्याधीन्मृतो जीवयति स्वयम् ।
बद्धः खेचरतां कुर्याद्रसो वायुश्च भैरवि ॥ इति । यही अर्थ परमेश्वर ( शिव ) ने पार्वती को विस्तारपूर्वक समझाया है-'हे देवियों की देवि ! कर्मयोग ( क्रियाविधि से ) शरीर की स्थिरता प्राप्त होती है, यह कर्मयोग दो प्रकार का है रस ( पारद ) और वायु ( = प्राणवायु )। हे भैरवि ! पारद और पवन मूर्छित होने पर रोगों का हरण करते हैं; स्वयं मृत होने पर जिलाते हैं और बद्ध होने पर आकाश में चलने की शक्ति देते हैं।'
विशेष-कर्मयोग = शरीर के कर्मों को स्थिर करनेवाले पदार्थ-पारा और प्राणवायु । प्राणवायु शरीर के अन्दर संचरण करती है । प्राणायाम के द्वारा प्राणवायु को रोक देते हैं जिससे उसमें विशेष गति उत्पन्न हो जाती है तथा यह 'मूच्छित' कहलाती है। मूच्छित होने से ही रोगनिवारण की शक्ति इसमें आ जाती है । रससिद्ध योगी के रोग नष्ट होते हैं । अधिक निरोध होने पर यह स्वयं मृत हो जाती है, तथापि योगियों को अपने से
अलग होने नहीं देती-शरीर नित्य हो जाता है । स्तम्भित होने पर आकाश में चलने की ___ शक्ति भी देती है । इस प्रकार न केवल पारद, प्रत्युत प्राणवायु पर भी रससिद्ध योगियों का अधिकार देखा जाता है।
(६. पारद के तीन स्वरूप-मूछित, मृत और बद्ध) मूच्छितस्वरूपमुक्तम्१२. नानावर्णो भवेत्सूतो विहाय घनचापलम् ।
लक्षणं दृश्यते यस्य मूच्छितं तं वदन्ति हि ॥ १३. आर्द्रत्वं च घनत्वं च तेजो गौरवचापलम् ।
यस्यैतानि न दृश्यन्ते तं विद्यान्मृतसूतकम् ॥ इति । अन्यत्र बद्धस्वरूपमप्यभ्यधायि१४. अक्षतश्च लघुद्रावी तेजस्वी निर्मलो गुरुः ।
स्फोटनं पुनरावृत्ती बद्धसूतस्य लक्षणम् ॥ इति । मूच्छित [ पारद ] का स्वरूप यों कहा गया है-"जब पारद ( सूत ) कई वर्षों का हो और उसमें घनत्व और चंचलता ( तरलता ) न हो, इस प्रकार के लक्षण दिखलाई पड़ने पर उसे मूच्छित (-पारद ) कहते हैं । आर्द्र होना, घनत्व, चमक, गुणत्व और तरलत्व, ये ( लक्षण ) जिसमें नहीं दिखलाई पड़ें उसे मृत सूतक (पारद ) समझना चाहिए।" दूसरी जगह ( अन्य पुस्तक में ) बद्ध (पारद ) का स्वरूप भी कहा गया है-"जो क्षयरहित, थोड़ा द्रवित होनेवाला, तेजोमय ( चमकीला ), स्वच्छ, गुरु ( भारी )