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औलूक्य-दर्शनम्
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जीविका चलाते थे । इनके कणाद या कणभक्ष . कण + अद् या भक्षू = खाना ) नाम पड़ने का यही रहस्य है | उदयनाचार्य की किरणावली के अनुसार ये कश्यप गोत्र के ब्राह्मण थे वायुपुराण में इन्हें प्रभास तीर्थ का निवासी, सोमशर्मा का पिता एवं शिव का अवतार माना गया है । परम्परा है कि ये उलूक ऋषि के पुत्र थे इसलिए इस दर्शन को औलूक्य ( उलूक के पुत्र का ) दर्शन कहते हैं । यह भी जनश्रुति है कि कणाद तपस्या कर रहे थे जब कि उन्हें स्वयम् ईश्वर ने उलूक का रूप धारण करके छह पदार्थों का उपदेश दिया था, इसलिए इस दर्शन को औलूक्य ( उलूकेन प्रोक्तम् ) कहते हैं ।
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इस दर्शन के 'वैशेषिक' नाम पड़ने के बहुत से मत हैं । कुछ लोगों का कहना है कि अन्य शास्त्रों से, विशेषतया सांख्य से, विशेषता होने के कारण इसका नाम वैशेषिक पड़ा । दूसरे कहते हैं कि गौतम के प्रतिपादित १६ पदार्थों में धर्म और धर्मी का स्पष्ट विवेचन न होने के कारण उनका परस्पर साधर्म्य और वैधर्म्य दिखलाते हुए सुव्यवस्थित रूप से द्रव्य, गुण आदि ७ पदार्थों का ही वर्णन कणाद ने किया है । इस विशेष उद्देश्य से आगे बढ़ने के कारण इसका नाम वैशेषिक पड़ा । किन्तु ये सारे कारण कपोल-कल्पित हैं सच तो यह है कि 'विशेष' नामक पदार्थ पर अधिक जोर देकर इसका समीचीन विवेचन करने के कारण ही इसे वैशेषिक दर्शन कहते हैं ( व्यासभाष्य ११४९ योगसूत्र ) 1
वैशेषिक दर्शन और न्याय दर्शन समान तन्त्र कहलाते हैं, क्योंकि दोनों में सिद्धान्त की अत्यधिक समता है । दोनों का साहित्य भी समान रूप से ही चलता है । जो लोग न्याय के विद्वान हैं वे वैशेषिक के भी हैं । एक का भी नाम लेना होता है तो न्याय-वैशेषिक ही कहते हैं । फिर भी वैशेषिक साहित्य की विपुलता अपना स्वतन्त्र स्थान रखती है
इस दर्शन का आरम्भ कणाद के वैशेषिक सूत्रों से होता है, जिसमें १० अध्याय ( प्रत्येक के दो-दो आह्निक) और ३७० सूत्र हैं । इस पर प्रशस्तपाद का तथाकथित भाष्य है, जो एक स्वतन्त्र ग्रन्थ ही है । इसे पदार्थधर्म संग्रह भी कहते हैं । वैशेषिक सिद्धान्तों की स्पष्टतर विवेचना होने के कारण इस ग्रन्थ का बहुत अधिक प्रचार हुआ । इसका वही स्थान है जो पाणिनि व्याकरण में सिद्धान्तकौमुदी का या सांख्यदर्शन में सांख्यकारिका का । बाद की सारी टीकाएं इसी पर लिखी गईं ( प्रशस्तपाद का समय ४५० ई० है ) । इसकी टीकाओं में व्योमशिवाचार्य ( ९८०ई०) को व्योमवती, उदयनाचार्य ततोऽनुकुर्याद्विशदस्य तस्यास्ता म्रोष्ठपर्यस्तरुचः स्मितस्य ॥
( कु० ११४४ )
इसी तरह शिशुपाल वध में कृष्ण के वक्षःस्थल का वर्णन - उभौ यदि व्योम्नि पृथक्प्रवाहावाकाशगङ्गापयसः पतेताम् । तेनोपमीयेत तमालनीलमामुक्तमुक्तालतमस्य वक्षः ॥
(शि० ब० ३३८ )