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सर्वदर्शनसंग्रहे
लोहवेध = लोह ( लहू ) पर रस का प्रयोग । जैसे रक्त में प्रविष्ट होने पर पारा रक्त को कांचनवत् दिव्य कर देता है, उसी प्रकार देह में प्रविष्ट हो जाने पर उसे भी दिव्य कर देगा ।
( ९. जीवितावस्था में मुक्ति देहवेध के विषय में शंका )
ननु सच्चिदानन्दात्मकपरतत्त्वस्फुरणादेव मुक्तिसिद्धौ किमनेन दिव्यदेहसंपादनप्रयासेनेति चेत् — तदेतद्वार्तम् । अवार्तशरीरालाभे तद्वार्ताया अयोगात् । तदुक्तं रसहृदये
२०. गलितानल्पविकल्पः सर्वाध्वविवक्षितश्चिदानन्दः । स्फुरितोऽप्यस्फुरिततनोः करोति किं जन्तुवर्गस्य ॥
( र० हृ० १।२० ) इति । २१. यज्जरया जर्जरितं कासश्वासादिदुःखविशदं च । योग्यं यन्न समाधौ प्रतिहतबुद्धीन्द्रियप्रसरम् ।।
( ० हु० १।२९ ) इति ।
२२. बालः षोडशवर्षो विषय रसास्वादलम्पटः परतः । यातविवेको वृद्धो मत्यंः कथमाप्नुयान्मुक्तिम् ॥ इति ।
कोई यह पूछ सकता है कि सत्, चित् और आनन्द के रूप में परम तत्त्व के स्फुरण
मुक्ति की बात )
( साक्षात्कार ) से ही जब मुक्ति मिल जाती है तब दिव्य-देह बनाने के लिए इस प्रकार के प्रयास से क्या लाभ है ? [ उत्तर होगा कि ] यह तर्क व्यर्थ ( वार्त ) है, क्योंकि वास्तविक ( सत्य ) शरीर बिना पाये हुए ऐसी बात ( आत्मसाक्षात्कार से हो ही नहीं सकती है । वैसा रसहृदय में कहा है- 'सभी विकल्पों को नष्ट करनेवाला तथा सभी स्थानों ( दर्शनों) से सम्मत चिदानन्द स्फुरित ( प्रकट ) होने पर, अप्रकट ( अस्थिर ) शरीरवाले जीवों पर क्या कर सकता है ? ( रसहृदय, ११२० ) । जो (शरीर ) वृद्धावस्था से जर्जरित ( जीर्ण-शीर्ण ) हो गया है, जिसमें खाँसी और दमा आदि दुःख पूर्णतया व्याप्त हों, जिसमें ज्ञानेन्द्रियों का प्रसार ( गति ) कुण्ठित हो जाता हो, वह समाधि के योग्य (शरीर ) नहीं है । ( २० हु० १।२९ ) । मनुष्य सोलह वर्षों तक तो बालक रहता है, बाद में विषय-रस के आस्वाद में लिपटा रहता है, वृद्ध होने पर विवेक-शून्य हो जाता है, वह मुक्ति कैसे पा सकता है ? १
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( १०. जीवितावस्था में मुक्ति -- एक वाद )
ननु जीवत्वं नाम संसारित्वम् । तद्विपरीतत्वं मुक्तत्वम् । तथा च परस्परविरुद्धयोः कथमेकायतनत्वमुपपन्नं स्यादिति चेत् तदनुपपन्नम् ।
१ -- तुलनीय - चर्पटपंजरिका स्तोत्र में
बालस्तावत्क्रीडासक्तः "
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