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सर्वदर्शनसंग्रहे
'एक वस्तु ( बीज ) के होने पर दूसरी वस्तु ( अंकुर ) को सत्ता होगी-इस प्रकार का जो कार्य-कारण सम्बन्ध है वह भी अपेक्षारहित जड़ ( Insentient ) पदार्थों में नहीं रह सकता ॥१६॥ ____ उपर्युक्त नियम से यह सिद्ध होता है कि जड़ पदार्थ (परमाणु आदि ) संसार के कारण नहीं हो सकते [ क्योंकि इनमें अपेक्षा नहीं है, अपेक्षा किसी चेतन में ही रहती हैं ] । दूसरी ओर, ईश्वर के अतिरिक्त कोई दूसरा चेतन ( जैसे जीव ) भी [ संसार का कारण नहीं हो सकता क्योंकि उसमें संसार उत्पन्न करने की सामर्थ्य नहीं है। इसलिए घटादि का कारण होने पर भी जीव संसार को नहीं उत्पन्न कर सकते ] । इसलिए संसार के जन्म, स्थिति आदि भाव-विकारों के रूप में तथा उनके भेदों के रूप में हजारों क्रियाओं के द्वारा भगवान् ठहरना चाहता है। उस स्वतन्त्र महेश्वर भगवान् को इच्छा, जो क्रमशः बढ़ती ही जाती है, ही क्रिया है । दूसरे शब्दों में उसे विश्व का उत्पादन ( रचना ) भी कहते हैं ।
विशेष--संसार की रचना ईश्वर की इच्छा से ही होती है। जब ईश्वर चाहता है कि अपनी क्रियाओं के रूप में अवस्थित रहूँ---एक होकर भी बहुत से रूपों में रहूँ, तब भाव छः विकारों ( जायते, अस्ति, वर्धते, विपरिणमते, अपक्षीयते, विनश्यति-देखें निरुक्त १।२ ) और उनके नाना प्रकार के भेदों के रूप में संसार की रचना हो जाती है । वस्तुतः क्रिया तो एक ही है-ईश्वर की इच्छा, परन्तु उसके विकार इतने प्रकार के हो जाते हैं कि क्रियाएं हजारों-हजारों हो जाती हैं । महेश्वर की इच्छा उत्तरोत्तर बढ़ती जाती है ( उच्छूनस्वभावा )---इसी से विकास होता है जिसका अन्त विनाश में है। इस प्रकार संसार की रचना के लिए किसी उपादान की आवश्यकता नहीं । वह केवल ईश्वर की एक शक्ति क्रिया अर्थात् इच्छा-से ही उत्पन्न हो जाता है । इसे इस दर्शन के आरम्भ में भी कह चुके हैं । केवल इच्छा से संसार की रचना मानने के लिए सांसारिक बुद्धि प्रस्तुत नहीं होती। इसी के कारण त्रिक-दर्शन की पृष्ठभूमि में तान्त्रिक मत है । तन्त्र के प्रभाव से इच्छामात्र से क्षणभर में बहुत सी चीजें उत्पन्न हो जाती हैं । अभिनवगुप्त स्वयं भी एक बड़े तान्त्रिक थे। इसके बिना कोई लौकिक दृष्टान्त देना असम्भव है। इच्छामात्रेण जगन्निर्माणमित्यत्र दृष्टान्तोऽपि स्पष्टं निर्दिष्टः
१७. योगिनामपि मृद्वीजे विनैवेच्छावशेन यत् ।
घटादि जायते तत्तस्थिरभावक्रियाकरम् ॥ इति । यदि घटादिकं प्रति मृदायेव परमार्थतः कारणं स्यातहि कथं योगीच्छामात्रेण घटादिजन्म स्यात् ? अथोच्येत-अन्य एव मृद्वीजादिजन्या घटाङकुरादयो, योगीच्छाजन्यास्त्वन्य एवेति । तत्रापि बोध्यसे-सामग्रीभेदातावत्कार्यभेद इति सर्वजनप्रसिद्धम् ।
केवल इच्छा करने से ही संसार का निर्माण हो जाता है, इस विषय में लौकिक दृष्टान्त भी तो स्पष्ट रूप से ही दिया गया है--योगी लोग भी मिट्टी और बीज के बिना ही केवल