________________
प्रत्यभिज्ञा-वर्शनम्
३१३
वस्तुओं का प्रकाशन करते हैं - सारी वस्तुएं उसी प्रकार सत्य हैं जिस प्रकार स्वयम् ईश्वर । सारी वस्तुएँ ईश्वर के आभास से आती हैं, अतः इस दर्शन को वस्तुवादी प्रत्ययवाद ( Realistic idealism ) कहते हैं । अब रही ईश्वर की क्रियाशक्ति । तो उससे सारे संसार का निर्माण ही होता है । शक्ति की व्याख्या आगे की जायगी। ] तच्च निरूपितं क्रियाधिकारे
——
१४. एष चानन्तशक्तित्वादेवमाभासयत्यमून् ।
उपसंहारेऽपि --
भावानिच्छावशादेषां क्रिया निर्मातृतास्य सा ॥ इति ।
१५. इत्थं तथा घटपटाद्याकारजगदात्मना । तिष्ठासोरेवमिच्छेव हेतुकर्तृकृता क्रिया ॥ इति ।
इस दर्शन के क्रिया परिच्छेद में उसका निरूपण भी हुआ है - 'वह ( महेश्वर ) अपनी अपरिमित शक्ति होने के कारण उन भावों ( पदार्थों ) को प्रकाशित ( आभासित ) करता है [ यह उसकी ज्ञानशक्ति है ] । उसी प्रकार अपनी इच्छा से ही वह उक्त पदार्थों का निर्माण करता है जो उसकी क्रियाशक्ति है ॥ १४ ॥ '
उपसंहार करते हुए भी कहा गया है--' इस प्रकार घट, पट आदि आकारों ( पदार्थों) से भरे हुए संसार के रूप में स्थिर रहने के इच्छुक, हेतुकर्ता ( प्रयोजक कर्ता = महेश्वर ) में उत्पन्न जो इच्छा है, वही किया है ।। १५ ।। '
विशेष - हेतु का अर्थ प्रयोजक कर्ता है, क्योंकि पाणिनि-मुनि कहते हैं - तत्प्रयोजको हेतुश्च ( पा० सू० १।४।५५ ) | प्रेरणार्थक क्रिया का प्रयोग होने पर दो कर्ता होते हैं - प्रयोज्य और प्रयोजक । रामः पठति । अध्यापकः रामं पाठयति । इन वाक्यों में 'अध्यापक' और 'राम' दोनों ही कर्ता हैं, अध्यापक प्रयोजक या हेतु कर्ता है जब कि राम प्रयोज्य कर्ता । उसी प्रकार इस स्थान में, 'भावा आभासन्ते, महेश्वरो भावानाभासयति' के साथ भी बात है - महेश्वर प्रयोजक कर्ता है । महेश्वर की इच्छा होती है - 'एकोऽहं बहु स्यां प्रजायेय' उसकी यह इच्छा ही क्रिया कहलाती है ।
( ७. ईश्वर की इच्छा से संसारोत्पत्ति )
१६. तस्मिन्सतीदमस्तीति कार्यकारणताऽपि या । साप्यपेक्षाविहीनानां जडानां नोपपद्यते ॥
इति न्यायेन यतो जडस्य न कारणता न वाऽनीश्वरस्य चेतनस्यापि, तस्मात्तेन तेन जगद्गतजन्मस्थित्यादिभाव विकारतत्तद्भेदक्रिया सहस्ररूपेण स्थातु पिच्छो: स्वतन्त्रस्य भगवतो महेश्वरस्येच्छैव उत्तरोत्तरमुच्छूनस्वभावा क्रिया विश्वकर्तृत्वं वोच्यत इति ।