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प्रत्यभिज्ञा- वर्शनम्
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होती । [ ब्रह्मा नियति या अदृष्ट या सांसारिक नियमों का केवल अनुवर्तन कर सकते हैं, उल्लंघन नहीं । पर ईश्वर के लिए नियति का खंडन बायें हाथ का खेल है-- अपनी लीला से ही वे नियति ( जैसे - कार्यकारणभाव ) को काट सकते हैं। बड़े लोगों के लिए कोई अनुचित कार्य नहीं । ]
इसीलिए आचार्य वसुगुप्त ने कहा है— जो बिना प्रदेश में ] बिना उपकरणों के समूह का सहारा लिये, है, कलाओं के उस स्वामी शूलधारी भगवान् शिव को मैं प्रणाम करता हूँ ।'
किसी भित्ति ( आधार ) के [ शून्य इस विचित्र संसार की रचना करता
विशेष - इस मंगल श्लोक में यह प्रदर्शित है कि महेश्वर को संसार की रचना करने न किसी आधार की आवश्यकता पड़ती है और न किसी सामग्री की ही । उसकी इच्छा ही क्रिया है, विश्व की रचना है ।
( ९. विभिन्न प्रश्न -- जीव और संसार का सम्बन्ध )
ननु प्रत्यगात्मनः परमेश्वराभिन्नत्वे संसारसम्बन्धः कथं भवेदिति चेत्तत्रोक्तमागमाधिकारे
१९. एष प्रमाता मायान्धः संसारी कर्मबन्धनः । विद्यादिज्ञापितैश्वर्यश्चिद्धनो मुक्त उच्यते ।। इति ।
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अब प्रश्न है कि जब प्रत्यगात्मा ( जीव Individual self ) को परमेश्वर से अभिन्न ही मानते हैं तो जीव का सम्बन्ध संसार से कैसे होगा ? इसका उत्तर उसी दर्शन में आगमों का वर्णन करनेवाले परिच्छेद में हुआ है - 'यह प्रमाता ( ज्ञाता जीव ) माया से अन्धा होकर ( ईश्वर के स्वरूप के विषय में ज्ञान न रहने के कारण ) कर्म के बन्धन में पड़ा हुआ संसार में ही रहता है । विद्या ( प्रत्यभिज्ञा आदि के द्वारा जब उसे ऐश्वर्य ( ईश्वर के स्वरूप ) का ज्ञान प्राप्त कराया जाता है [ कि वह ईश्वर ही है ] तब चित् की मूर्ति बनकर [ दृक्शक्ति और क्रियाशक्ति से युक्त होकर ] वह मुक्त कहलाता है ॥ १९ ॥ [ यही जीव और संसार का सम्बन्ध है कि मुक्ति के पूर्व तक जीव इस संसार में ही विचरण करता रहता है । ]
( ९. क. प्रमेय को लेकर बद्ध और मुक्त में भेद )
ननु प्रमेयस्य प्रमात्र भिन्नत्वे बद्धमुक्तयोः प्रमेयं प्रति को विशेषः ? अत्राप्युत्तरमुक्तं तत्त्वार्थसंग्रहाधिकारे
२०. मेयं साधारणं मुक्तः स्वात्माभेदेन मन्यते ।
महेश्वरो यथा बद्धः पुनरत्यन्तभेदवत् ॥ इति ।
दूसरा प्रश्न है कि प्रमेय ( Knowable ) पदार्थ प्रमाता ( Knawer ) से अभिन्न होता है तब प्रमेय को लेकर बद्ध और मुक्त जीवों में क्या अन्तर होगा ? [ इस प्रश्न का