________________
प्रत्यभिज्ञा-दर्शनम् १३. स एव विमृशत्वेन नियतेन महेश्वरः ।
विमर्श एव देवस्य शुद्ध ज्ञानक्रिये यतः ॥ इति । पूज्यपाद श्री सोमानन्दनाथ ने भी कहा है-[ महेश्वर का दास अपनी आत्मा को ] सदैव शिव के रूप में जानता है, वह उसे आत्मा अर्थात् शिव-शक्ति के रूप में जानता है।' इत्यादि । ( मत् = मैं, आत्मा)।
इसके अतिरिक्त ग्रन्थ में जहाँ ज्ञान का अधिकार ( अध्याय, Topic ) समाप्त हुआ है, वहाँ पर भी कहा गया है—'उस महेश्वर के साथ एकता स्थापित हुए बिना प्रकाश या ज्ञान ( संवित ) का लौकिक व्यवहार नहीं हो सकता। सभी प्रकार के प्रकाशों में एकता होने के कारण महेश्वर-विषयक एकता को जाननेवाला वह एक ही तत्त्व है-ऐसी वस्तुस्थिति है।' [ तात्पर्य यह है कि सूर्यादि के प्रकाश से बहुत-सी चीजें प्रकाशित होती हैं, उनका ज्ञान हमें प्राप्त होता है। इस प्रकार सांसारिक ज्ञान की प्रणाली या पद्धति है। इस प्रकार के प्रकाशन और महेश्वर के प्रकाशन में एकता है--महेश्वर उसी प्रकार आभासित होता है; मोहवश हमें दिखलाई नहीं पड़ता। यह एकता तभी सिद्ध होगी जब हम उपाधिहीन प्रकाशों में भेद न मानें। यह एकमात्र प्रकाश ही सभी वस्तुओं का प्रमाता (ज्ञाता है।] वही ( प्रकाश, ज्ञान ) एक निश्चित विमर्श (ज्ञान-क्रिया शक्ति) के कारण महेश्वर कहलाता है, क्योंकि देवदेव महेश्वर के विमर्श का अर्थ ही है शुद्ध ( उपाधिहीन ) ज्ञानशक्ति और क्रियाशक्ति का होना । - विशेष-ईश्वर के प्रकाश से सम्पूर्ण जगत् प्रकाशित होता है । निरुपाधिक ज्ञानशक्ति और क्रियाशक्ति में ही सम्पूर्ण जगत् निहित है। ईश्वर के प्रकाशन और वस्तुओं का प्रकाशन प्रायः एक ही है। प्रायः इसलिए कि वस्तुओं में देश-काल आदि उपाधियाँ लगी हैं । इन के हट जाने पर तो अद्वयतत्त्व ही बच रहता है। यह ऐक्य या अद्वयतत्त्व ही महेश्वर है।
(६. वस्तुओं का प्रकाशन-आभासवाद ) विवृतं चाभिनवगुप्ताचार्यैः। 'तमेव भान्तमनुभाति सर्व, तस्य भासा सर्वमिदं विभाति' ( काठक० २।२) इति श्रुत्या प्रकाशचिद्रूपमहिम्ना सर्वस्य भावजातस्य भासकत्वमभ्युपेयते । ततश्च विषयप्रकाशस्य नीलप्रकाशः पीतप्रकाश इति विषयोपरागभेदादिः। वस्तुतस्तु देशकालाकारसंकोचवैकल्यादभेद एव । स एव चैतन्यरूपः प्रकाशः प्रमातेत्युच्यते ।
आचार्य अभिनवगुप्त ने व्याख्या भी की है। एक श्रुतिवाक्य है-'उस प्रकाशमान पुरुष के पीछे-पीछे सारी चीजें प्रकाशित होती हैं, उसी के प्रकाश से ये सारी चीजें प्रकाशित होती हैं ।' ( काठक० २।२ ) [ इस श्रुति का तात्पर्य है कि महेश्वर के प्रकाशित होने पर सूर्यादि का प्रकाश होता है । जैसे जाते हुए पुरुष के पीछे-पीछे चलनेवाले पुरुप