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सर्वदर्शनसंग्रहे
की गति स्वतन्त्र नहीं होती, उसी प्रकार सूर्यादि का प्रकाश स्वतन्त्र नहीं होता उसी महेश्वर के अधीन इनका प्रकाश स्फुरित होता है । ] इस श्रुति से सिद्ध होता है कि उस प्रकाशस्वरूप, चिद्रूप अर्थात् बुद्धिस्वरूप ( महेश्वर ) की महिमा से सारे पदार्थ ( = प्रकाश देनेवाले, सूर्यचन्द्रादि ) प्रकाशक कहलाते हैं । इसके बाद विषयों के प्रकाशन में नीला प्रकाश ( नील वस्तु ), पीला प्रकाश ( वस्तु ) इस प्रकार के भेद इसलिए होते हैं कि स्वयं विषयों (Objects ) में ही रंग ( Golour ) का भेद है [ और ये ही रंग प्रकाश पर पड़कर वस्तु को नीली, पीली बनाकर प्रकाशित कराते हैं - वस्तुओं में भेद का यही कारण है । ]
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वास्तव में देश, काल और आकार की सीमा ( संकोच ) न होने के कारण तत्त्व तो एक ही है । वही चैतन्य ( बुद्धि ) के रूप में प्रकाश है जिसे हम प्रमाता या ज्ञाता भी कहते हैं । [ ईश्वर प्रकाश है तथा चैतन्यरूप है । वही अपनी आत्मा के दर्पण पर प्रतिबिम्ब की तरह सभी वस्तुओं को प्रकाशित करता हो । इस सिद्धान्त को आभासवाद कहते हैं ।]
तथा च पठितं शिवसूत्रेषु - ' चैतन्यमात्मा' ( ११ ) इति । तस्य चिद्रूपत्वमनवच्छिन्नविमर्शत्वमनन्योन्मुखत्वमानन्दैकघनत्वं माहेश्वर्यमिति पर्याय: । स एव ह्ययं भावात्मा विमर्शः शुद्धे पारमार्थिक्यौ ज्ञानक्रिये । तत्र प्रकाशरूपता ज्ञानम् । स्वतो जगन्निर्मातृत्वं क्रिया ।
जैसा कि शिवसूत्रों का आरम्भ हुआ करता है - ' चैतन्य ही आत्मा है' ( शि० सू० १1१ ) | उसके बहुत से पर्याय भी हैं - चित् ( Intelligence ) के रूप में होना, विमर्श अर्थात् ज्ञान- क्रिया-शक्ति का अव्यवहित उपाधिहीन ) होना, दूसरे पर निर्भर न करना ( स्वतन्त्रता ), आनन्द के एकमात्र घन-पिण्ड के रूप में होना तथा सबसे अधिक ऐश्वर्य होना ( महेश्वर होना ) 1 [ ये सभी ईश्वर के गुण के पर्यायवाची शब्द हैं । ] इसी को भाव ( धर्म, शक्ति ) के रूप में विमर्श मानते हैं, जिसका अर्थ है विशुद्ध ( उपाधिहीन ) पारमार्थिक ज्ञान और क्रिया ।
इनमें ज्ञान उसे कहते हैं जिनके द्वारा वस्तुओं का प्रकाशन हो । अपने आप से ही समूचे संसार का निर्माण करना क्रिया है । [ ईश्वर के गुणों के पर्यायों में 'विमर्श' शब्द आया है । पूरा शब्द है - ईश्वर के विमर्श का अनवच्छिन्न होना । विमर्श अवच्छिन्न तभी होता है जब भ्रान्तिवश हम विमर्श ( ज्ञान और क्रिया ) में देश, काल, आकार, वर्ण आदि अवच्छेदक या सीमिति करनेवाली उपाधियाँ लगा दें। यदि इन उपाधियों का अभाव हो तो विमर्श अनवच्छिन्न अर्थात् अव्यवहित होता है। ईश्वर का विमर्श ऐसा ही होता है । अच्छा यह बार-बार उच्चरित 'विमर्श' है क्या ? इसका अर्थ ज्ञान और क्रिया है । ईश्वर के पास शुद्ध विमर्श यानी शुद्ध ज्ञान और शुद्ध क्रिया है । अपने ज्ञान से वे सारी