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सर्वदर्शनसंग्रहे
नाश ) हो जाने पर उत्पन्न होनेवाला भाव ( दशा) का नाम क्षायिक है। उदाहरणार्थ-पंक में से बिल्कुल पृथक्, निर्मल तथा स्फटिक आदि के पात्र में रखे हए जल की स्वच्छता। उसी तरह मोक्ष भी है | जिसमें जीव कर्मों का पूर्ण विनाश करके प्रवेश करता है ।
( ३-५ ) दोनों मिला-जुला होने से भाव मिश्र (क्षायौपशमिक ) है। उदाहरणार्थ-[ कुएं आदि के ] जल में आधी स्वच्छता। कर्म का उदय होने पर जो भाव उत्पन्न होता है वह औदयिक है। कर्म के उपशम आदि से अलग स्वाभाविक भाव जो चेतनत्व ( Consciousness ) आदि है, वह पारिणामिक है।
यही भाव यथासम्भव भव्य या अभव्य जीव स्वरूप है-यही वाचकाचार्य के सूत्र का अर्थ है।
विशेष-जैन-दर्शन में जीवों की भव्यता पर बड़ा विचार किया गया है । जीव । अन्धकार में भटकते रहते हैं। जब तक उनमें आध्यात्मिक विकास के लिए स्वयं-चेतन प्रयास नहीं चलता तब तक वे सम्यग् दर्शन नहीं पाते। इसके लिए उनमें सत्य-प्राप्ति के लिए प्रेम उत्पन्न होता है। सभी जीवों में यह लक्षण नहीं पाया जाता। जो इस सम्यक् दर्शन से युक्त होकर मोक्ष के इच्छुक हैं वे भव्य जीव ( Fit for liberation ) हैं। जिनमें यह लक्षण नहीं वे अभव्य हैं, ये कभी मोक्ष नहीं पा सकते । जैन लोग इस अनन्त बन्धन का कोई निश्चित कारण नहीं देते । बौद्धधर्म में भी ऐसे अभव्यों का वर्णन है। देखें, अभिसमयालंकार ८।१०
वर्षत्यपि हि पर्जन्ये नैवाबीजं प्ररोहति ।
समुत्पादेऽपि बुद्धानां नाभन्यो भद्रमश्नुते ॥ अस्तु, भव्यत्व और अभव्यत्व जीव के ये दो भाव चैतन्य के समान ही पारिणामक हैं । अब प्रश्न उठता है कि चैतन्य तो ज्ञान है, वह जीवात्मा में रहनेवाला उसका गुण है, स्वरूप नहीं । फिर चैतन्य जीव का भाव कैसे होगा ? इसका समाधान नीचे देंगे
तदुक्तं स्वरूपसम्बोधने-- ३१. ज्ञानाद् भिन्नो न नाभिन्नो भिन्नाभिन्नः कथंचन ।
ज्ञानं पूर्वापरीभूतं सोऽयमात्मति कीर्तितः ॥ इति । ननु भेदाभेदयोः परस्परपरिहारेण अवस्थानादन्यतरस्यैव वास्तवत्वादुभयात्मकत्वमयुक्तमिति चेत्-तदयुक्तम् । बाधे प्रमाणाभावात् । अनुपलम्भो हि बाधकं प्रमाणम् । न सोऽस्ति। समस्तेषु वस्तुष्वनेकान्तात्मकत्वस्य स्याद्वादिनो मते सुप्रसिद्धत्वादित्यलम् ।
स्वरूप-सम्बोधन नामक ग्रन्थ में यह कहा गया है-'जो ज्ञान से भिन्न नहीं, और न अभिन्न ( समान Identical ) ही है, किसी प्रकार वह भिन्न और अभिन्न दोनों है, उसके