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सर्वदर्शनसंबहे
'चन्द्र, सूर्य आदि ग्रह तो जा-जाकर लौट आते हैं, लेकिन लोक से परे जो आकाश है उसमें गये हुए लोग आज तक नहीं लौटे ।'
अन्ये तु गतसमस्तक्लेशतद्वासनस्यानावरणज्ञानस्य सुखकतानस्यात्मन उपरिदेशावस्थाने मुक्तिरित्यास्थिषत । एवमुक्तानि सुखदुःखसाधनाभ्यां पुण्यपापाभ्यां सहितानि नव पदार्थान्केचनाङ्गीचक्रुः । तदुक्तं सिद्धान्ते जीवाजीवो पुण्यपापयुतावासवः संवरो निर्जरणं बन्धो मोक्षश्च नव तत्त्वानोति । संग्रहे प्रवृत्ता वयमुपरताः स्मः ।
दूसरे लोग कहते हैं कि सभी क्लेशों और उनकी वासनाओं के नष्ट हो जाने पर, ज्ञान के आवृत ( ढंकना) न होने पर (प्रकट ज्ञान रहने पर ), एकमात्र सुख से भरी हई आत्मा का ऊपर के देश में अवस्थित होना ही मुक्ति है।
कितने लोग ऊपर कहे गये [ सात तत्त्वों में ] सुख और दुःख के कारणस्वरूप पुण्य और पाप ( दो और पदार्थों को ) जोड़कर कुल नव पदार्थ मानते हैं। सिद्धान्त [ नामक ग्रन्थ ] में कहा गया है कि पुण्य और पाप से संयुक्त जीव और अजीव (१-४), आस्रव (५), संवर ( ६ ), निर्जरण (७), बन्ध (८), और मोक्ष (९) ये नव तत्त्व हैं। चूंकि हमारा लक्ष्य सार का संग्रह ( Summary ) करना है, इसलिए अब [ विस्तार ] छोड़ दें।
विशेष-माधवाचार्य सर्वदर्शनसंग्रह का लक्ष्य ( Object ) यहाँ बतलाते हैं कि इस ग्रन्थ में विस्तृत प्रमेयों का संक्षेप में वर्णन किया गया है। व्याख्याशैली नहीं अपनाकर माधव ने समास-शैली अपनायी है । संग्रह का लक्षण है
विस्तरेणोपदिष्टानामर्थानां तत्त्वसिद्धये ।
समासेनाभिधानं यत्संग्रहं तं विदुर्बुधाः ॥ अब जैनों का न्यायशास्त्र आरम्भ होता है जिसमें सुप्रसिद्ध सप्तभङ्गी-नय ( Sevenmembered syllogism ) या अनेकान्तवाद की प्रतिष्ठा होती है ।
( २५. जैन न्यायशास्त्र-सप्तमङ्गोनय ) अत्र सर्वत्र सप्तङ्गिनयाख्यं न्यायमवतारयन्ति जनाः। स्यादस्ति, स्यान्नास्ति, स्यादस्ति च नास्ति च, स्यादवक्तव्यः, स्यादस्ति चावक्तव्यः, स्यान्नास्ति चावक्तव्यः, स्यादस्ति च नास्ति चावक्तव्यः इति ।
जैन लोग सर्वत्र सप्तभङ्गी–नय नामक ( Logic ) उपस्थित करते हैं । [ इसके सात निम्नांकित रूप हैं-1 (१) स्यादस्ति-किसी प्रकार है, (२) स्यान्नास्तिकिसी प्रकार नहीं है, ( ३ ) स्यादस्ति च नास्ति च-किसी प्रकार है और नहीं है, (४) स्यादवक्तव्यः-किसी प्रकार अवर्णनीय है, (५) स्यादस्ति चावक्तव्यः-किसी प्रकार है