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सर्वदर्शनसंग्रहे
मार्थ ( परोपकार ) में लगे हैं । ] प्रयोजन का लक्षण करते हुए अक्षपाद ( गौतम ) अपने न्यायसूत्र में कहते हैं - 'जिस ( उपादेय या त्याज्य ) वस्तु को लक्षित करके [ उसकी प्राप्ति या त्याग के लिए मनुष्य ] उपाय करता है वही उसका प्रयोजन कहलाता है । ' ( न्यायसूत्र १।१।२४ ) | [ ऐसी स्थिति में यदि मनुष्य का अभीष्ट - उपादेय - परोपकार हो तो वही प्रयोजन है, इसमें सन्देह की क्या बात है ? ]
उपशब्दः सामोप्यार्थः । तेन जनस्य परमेश्वरसमीपताकरणमात्रं फलम् अत एवाह - समस्तेति । परमेश्वरतालाभे हि सर्वाः सम्पदस्तन्निष्यन्दमय्यः सम्पन्ना एव, रोहणाचललाभे रत्नसम्पद इव । एवं परमेश्वरताला भे किमन्यत्प्रार्थनीयम् ?
'उप' शब्द अर्थ है समीप आना । इसलिये यह ज्ञात होता है कि प्रत्यभिज्ञा-शास्त्र का फल केवल परमेश्वर के समीप कर देना ही है और कुछ नही । इसीलिए आगे कहा है'समस्तसम्पत्समवाप्तिहेतुम्' । परमेश्वर का पद पा लेने पर ही सारी सम्पत्तियाँ उस ( परमेश्वर ) के निष्यन्द ( प्रवाहित वस्तु ) के रूप में निकलकर प्राप्त हो जाती हैं जिस प्रकार रोहणाचल ( मेरुपर्वत जिसमें रत्न के मैदान हैं और जो स्वयं स्वर्ण का ही है ) के मिल जाने पर रत्नसम्पत्तियाँ प्राप्त होती हैं । इस प्रकार परमेश्वर का पद मिल जाने पर और कौन-सी ऐसी वस्तु है जिसके लिए प्रार्थना की जाय ?
तदुक्तमुत्पलाचार्यै:
६. भक्तिलक्ष्मीसमृद्धानां किमन्यदुपयाचितम् ।
एतया वा दरिद्राणां किमन्यदपयाचितम् ॥ इति । इत्थं षष्ठीसमासपक्षे प्रयोजनं निर्दिष्टम् । बहुव्रीहिपक्षे तूपपादयामः ।
जैसा कि उत्पलाचार्य ने कहा है- 'भक्ति रूपी लक्ष्मी से समृद्ध पुरुषों के लिए कौनसी दूसरी चीज है जिसके लिए वे प्रार्थना करें ? और जो व्यक्ति उस ( भक्तिरूपी धन ) से रहित हैं उनके लिए कौन-सी वस्तु त्याज्य है ? [ भक्ति से रहित व्यक्ति की याचना सभी वस्तुओं के लिए होती है- याचना की इयत्ता तो कहीं है ही नहीं । Demands are never fuililled. ]
इस प्रकार 'समस्त ''समवाप्तिहेतु' में पष्ठी तत्पुरुष समास मानने पर प्रयोजन दिखलाया गया । [ पष्ठीसमास --' सारी सम्पत्तियों की प्राप्ति का कारण' । बहुव्रीहि समास'सारी सम्पत्तियों की प्राप्ति ही जिसका हेतु ( लक्ष्य ) है । ] बहुव्रीहि समास मान लेने पर जो स्थिति होगी उसका निर्णय अब करते हैं ।
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समस्तस्य बाह्याभ्यन्तरस्य नित्यसुखादेर्या सम्पत्सिद्धि: तथावत्प्रकाशः, तस्याः सम्यगवाप्तिर्यस्याः प्रत्यभिज्ञायाः हेतुः सा तथोक्ता । तस्य महेश्व