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सर्वदर्शनसंग्रहे
हैं ।] दूसरा प्रलयाकल कहलाता है क्योंकि प्रलय ( Dissolution ) के द्वारा इसमें कलादि ( शरीर के प्रयोजक ) का विनाश होता है - इसमें मल के साथ कर्म भी ( = कुल दो पाश ) रहता है । तीसरा सकल है क्योंकि इसमें मल, माया, कर्म - ये तीन बन्धन या पाश रहते हैं ।
( ५ क. विज्ञानाकल जीव के दो भेद )
तत्र प्रथमो द्विप्रकारो भवति - समाप्तक लुषासमाप्तक लुष भेदाद् । तत्राद्यान् कालुष्यपरिपाकवतः पुरुषधौरेयानधिकारयोग्यान् अनुगद्य अनन्तादिविद्येश्वराष्टापदं प्रापयति । तद्विद्येश्वराष्टकं निर्दिष्टं बहुदेवत्ये१४. अनन्तश्चैव सूक्ष्मश्च तथैव च शिवोत्तमः । एक नेत्रस्तथैवैकरुद्रश्चापि त्रिमूर्तिकः ॥
१५. श्रीखण्डश्च शिखण्डी च प्रोक्ता विद्येश्वरा इमे । इति ।
उनमें पहला ( विज्ञानाल ) दो प्रकार का है - जिनका कलुष (मल) समाप्त हो गया है तथा जिनका कलुष समाप्त नहीं हुआ है। जिन लोगों के कालुष्य या मल का विनाश ( परिपाक ) हो जाता है वे पुरुषों में श्रेष्ठ हैं तथा अधिकार ( ईश्वरप्राप्ति ) के सर्वथा योग्य हैं, उन्हें, अनुगृहीत ( उन पर कृपा ) करके उन्हें अनन्त आदि विद्यश्वरों के पद पर पहुँचाया जाता है [ - इन्हें ही समाप्तकलुष विज्ञानाकल जीव कहते हैं ] आठ विद्यश्वरों का निर्देश बहुदेवत्य नामक ग्रन्थ में इस प्रकार हुआ है - 'अनन्त, सूक्ष्म, शिवोत्तम, एकत्र, एकरुद्र, त्रिमूर्ति, श्रीकण्ठ और शिखण्डी – ये ही आठ विद्यश्वर कहे गये हैं ।' [ ये विद्येश्वर जीवों में सबसे ऊंचे हैं, इन्हें शिवत्व को प्राप्ति हो जाती है । जीव अधिक-से-अधिक यही पद पा सकता है, यदि जीवावस्था में हो। ये मुक्त नहीं हैं, केवल शिव का अनुग्रह प्राप्त किये हुए अधिकारी हैं । समाप्तकलुष से केवल इन विद्यश्वरों का बोध होता है ।
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अन्या - ( त्या ) - सप्तकोटिसंख्यातान्मन्त्राननुग्रहकरणान्विधत्ते तदुक्तं तत्त्वप्रकाशे
१६. पशवस्त्रिविधाः प्रोक्ता विज्ञानप्रलयकेवलौ सकलः । मलयुक्तस्त्रताद्यो मलकर्मयुतो द्वितीयः स्यात् ॥ १७. मलमायाकर्मयुतः सकलस्तेषु द्विधा भवेदाद्यः । आद्यः समाप्त कलुषोऽसमाप्तकलुषो द्वितीयः स्यात् ॥ १८. आद्याननुगृह्य शिवो विद्येशत्वे नियोजयत्यष्टौ ।
मन्त्राँश्च करोत्यपराँस्ते चोक्ताः कोटयः सप्त ।। इति । असमाप्तकलुष जीवों को [ शिव ] अनुग्रह करनेवाले सात करोड़ मन्त्रों का रूप दे देता है । [ मन्त्र तो कर्म और शरीर से मुक्त रहते हैं, केवल मल उनमें रहता है, ये ऐसे जीव