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सर्वदर्शनसंग्रहे
जाता है और अर्थ कहाँ से कहाँ पहुँच जाता है— पुर्यष्टक = तीस तत्त्वों से निर्मित शरीर । कोई आठ तत्त्वों का निर्देश भी करे तो उसकी व्याख्या में ३० तत्त्वों को सम हित करना ही है ।
तथापि कथमस्य पुर्यष्टकत्वम् ? भूततन्मात्र बुद्धीन्द्रियकर्मेन्द्रियान्तःकरणसंज्ञैः पञ्चभिर्वगैः तत्कारणेन प्रधानेन कला दिपञ्चकात्मना वर्गेण चारब्धत्वादित्यविरोधः । तत्र पुर्यष्टकयुतान्विशिष्टपुण्यसंपन्नान् काँश्चिदनुगृह्य भुवनपतित्वमत्र महेश्वरोऽनन्तः प्रयच्छति । तदुक्तम्-
काँश्चिदनुगृह्य वितरति भुवनपतित्वं महेश्वरस्तेषाम् ॥ इति । फिर भी इसे पुर्यष्टक कैसे कहते हैं ? [ 'पुर्यष्टक' में 'आठ' शब्द है जिसका तात्पर्य कुछ-न-कुछ तो होगा ही । तीस तत्त्वोंवाले पुर्यष्टक में 'अष्ट' संख्या आई कैसे ? ]
प्रधान (
इस प्रकार यदि अवान्तर वर्गों के द्वारा हम गिनायें तो विरोध नहीं होगा - पव महाभूत, पञ्च तन्मात्र, पाँच ज्ञानेन्द्रियां, पाँच कर्मेन्द्रियाँ और तीन अन्तःकरण - ये पाँच वर्ग हुए; अब इनके कारणस्वरूप तीन गुण, = समस्त संसार का मूल कारण, प्रकृति ) तथा कलादि पाँच तत्त्वों ( कला, काल, नियति, विद्या, राग ) का वर्ग-ये तीन वर्ग हुए । [ सब मिलाकर आठ वर्ग हो जाते हैं । फिर विरोधी कैसे ? ] पुर्यष्टक से युक्त तथा विशेष पुण्य करनेवाले कुछ लोगों पर अनुग्रह ( दया ) करके महेश्वर अनन्त उन्हें इसी संसार से भुवनपति का पद देते हैं । जैसा कि कहा गया है - 'इन लोगों में कुछ पुरुषों पर दया करके महेश्वर उन्हें भुवनपति का पद दे देते । [ यहाँ महेश्वर का अर्थ विद्येश्वर है । ]
( ५. ग. 'सकल' जीव के भेद )
सकलोऽपि द्विविधः । पक्वकलुषापक्वक लुषभेदात् । तत्राद्यान्परमेश्वरस्तत्परिपाकपरिपाट्या तदनुगुणशक्तिपातेन मण्डल्याद्यष्टादशोत्तरशत
मन्त्रेश्वरपदं प्रापयति । तदुक्तम्
२४. शेषा भवन्ति सकलाः कलादियोगादहर्मुखे काले । शतमष्टादश तेषां कुरुते स्वयमेव मन्त्रेशान् ॥ २५. तत्राष्टौ मण्डलिनः क्रोधाद्यास्तत्समाश्च वीरेशः ।
श्रीकण्ठः शतरुद्राः शतमित्यष्टादशाभ्यधिकम् । इति ।
सकल भी दो प्रकार का है - पक्वकलुष ( जिनके कलुष पक्व हो गये हैं ) तथा अपक्वकलुष । उनमें पक्वकलुष जीवों को, परमेश्वर उनके परिपाक की प्रणाली को देखकर, उसके अनुसार ही [ दृक् और क्रिया को आच्छादित करनेवाली ] शक्ति का ह्रास होने पर, मण्डली आदि एक सौ अठारह मन्त्रेश्वरों ( एक प्रकार के जीव ) का पद प्रदान करता है । [ तात्पर्य यह है कि जैसे-जैसे मल आदि पाशों का परिपाक बढ़ता जाता है वैसे