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शैव-दर्शनम्
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वैसे ही उन पाशों में विद्यमान ज्ञान और क्रिया की आच्छादन -शक्ति भी क्षीण होती जाती है । शक्ति क्षीण हो जाने से पाश बेचारे कुछ नहीं कर पाते-रहकर भी नहीं रहते । ऐसी दशा में ही जीव मन्त्रेश्वर का पद प्राप्त करता है। इसके पहले सात करोड़ मन्त्रों का वर्णन हो चुका है, जो जीव ही हैं- उस पद को प्राप्त करने के अधिकारी ये मन्त्रेश्वर ही हैं ।]
जैसा कि कहा गया है - 'अवशिष्ट जीव के समय में इनका सम्बन्ध कला आदि के शिव स्वयं मन्त्रेश्वर बना देते हैं ।। २४ ।। क्रोधादि तत्त्व हैं ( = आठ ), ११८ मन्त्रेश्वर हैं ।। २५ ।'
सकल कहलाते हैं, क्योंकि सृष्टि के आरम्भ साथ रहता है । इनमें एक सौ अठारह जीवों के इनमें आठ तो मण्डली कहलाते हैं, फिर उतने ही वीरेश और श्रीकण्ठ के बाद एक सौ रुद्र - इस प्रकार कुल
विशेष - - अहर्मुख काल = सृष्टि के आरम्भ का समय । सृष्टि को दिन कहते हैं तथा
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प्रलय को रात्रि । दिन का मुख अर्थात् सृष्टि का आरम्भ ।
तत्परिपाकाधिक्यानुरोधेन शक्त्युपसंहारेण दीक्षाकरणेन मोक्षप्रदो भवत्याचार्यमूर्तिमास्थाय परमेश्वरः । तदप्युक्तम्
२६. परिपक्वमला नेतानुत्साद नहेतुशक्तिपातेन ।
योजयति परे तत्त्वे स दीक्षयाचार्यमूर्तिस्थः ॥ इति । श्रीमन्मृगेन्द्रेऽपि -
पूर्व व्यत्यासितस्याणोः पाशजालमपोहति ॥ इति ।
उन पाशों का परिपाक इतना अधिक हो जाता है कि उन्हीं के आग्रह से, रोध-शक्ति का सर्वथा विनाश हो जाने पर, उन जीवों के लिए, आचार्य की मूर्ति में प्रवेश करके, परमेश्वर दीक्षा के द्वारा मोक्षप्रद बनता है । यह भी कहा गया है - जिनके मल पूर्णतः परिपक्व हो जाते हैं, उनकी विनाशक ( उत्सादन हेतु = ज्ञान की विनाशक ) शक्ति को समाप्त करके, वह परमेश्वर आचार्य की मूर्ति ( शरीर ) में अवस्थित होकर दीक्षा- दान करके परम तत्त्व से मिला देता है ।'
श्रीमत् मृगेन्द्र में भी यही कहा है--' पहले व्यत्यासित ( अनादि संस्कार से मुक्त किये गये) जीव (अणु) के पाश - जाल को ही वह दूर करता है ।'
व्याकृतं च नारायणकण्ठेन । तत्सर्वं तत एवावधार्यम् । अस्माभिस्तु विस्तरभिया न प्रस्तूयते । अपक्वकलुषान्बद्धानणून्भोगभाजो विधत्ते परमेश्वरः कर्मवशात् । तदप्युक्तम्
२७. बद्धादेषानपरान् विनियुङ्क्ते भोगभुक्तये पुंसः ।
तत्कर्मणानुगमादित्येवं कीर्तिताः पशवः ॥ इति ।
नारायणकंठ ने इसकी व्याख्या भी की है । सब कुछ वहीं से देख लेना चाहिए । हम यहाँ केवल विस्तार के भय से नहीं दे रहे हैं ।
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