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सर्वदर्शनसंग्रहे( ३ ) फल के इच्छुक व्यक्ति जो कुछ करें वह कर्म है, जिसमें धर्म और अधर्म दोनों ही आते हैं । बीज और अंकुर की तरह प्रवाह के रूप में यह अनादि काल से चला आ रहा है । श्रीमत् किरण में कहा गया है-'जिस प्रकार मल अनादि है उसी प्रकार जीव के जो थोड़े से कर्म हैं वे भी अनादि ही हैं। यदि कर्म को अनादि सिद्ध नहीं करें तो कर्मों की विचित्रता कैसे सिद्ध कर सकेंगे? [ इस समय जैसे विचित्र कर्म देखते हैं वैसा ही वह अनादि भी सिद्ध होता है । यदि कर्म को आदियुक्त मान लें तो उसकी विचित्रता का प्रारम्भ में कोई कारण जरूर देना पड़ेगा । किन्तु कोई भी हेतु दिखलाया नहीं जा सकता इसलिए कर्म अनादि ही हैं । ]
मात्यस्यां शक्त्यात्मना प्रलये सर्व जगत्सृष्टौ व्यक्तिमायातीति माया। यथोक्तं श्रीमत्सौरमेये
३३. शक्तिरूपेण कार्याणि तल्लीनानि महाक्षये।
विकृतौ व्यक्तिमायाति सा कार्येण कलादिना ॥ इति । ( ४ ) प्रलयकाल में शक्ति के रूप में जिसमें समूचा संसार परिमित रहता है (/मा ) तथा सृष्टिकाल में अभिव्यक्ति प्राप्त करता है (आ+ या ) वही माया है। जैसा कि श्रीमत् सौरभेय में कहा गया है-महाक्षय ( प्रलय ) होने पर शक्ति के रूप में सारे कार्य ( जगत् के पदार्थ) उसी में विलीन हो जाते हैं और विकृति ( सृष्टि ) की अवस्था में कालादि कार्य के द्वारा अभिव्यक्त हो जाते हैं। [ अतः 'माया' शब्द की व्युत्पत्ति है/मा + आङ् उपसर्गसहित /या+घञ् के अर्थ में क प्रत्यय+टाप् स्त्रीलिंग प्रत्यय । अर्थ होगा-लीन होना और अभिव्यक्ति में आना।]
(७. उपसंहार ) यद्यप्यत्र बहु वक्तव्यमस्ति तथापि ग्रन्थभूयस्त्वभयादुपरम्यते । तदित्थं । पतिपशुपाशपदार्थास्त्रयः प्रदर्शिताः।
३४. पतिविद्ये तथाविद्या पशुः पाशश्च कारणम् ।
तन्निवृत्ताविति प्रोक्ताः पदार्थाः षट् समासतः॥ इत्यादिना प्रकारान्तरं ज्ञानरत्नावल्यादौ प्रसिद्धम् । सर्व तत एवावगन्तव्यमिति सर्व समञ्जसम् ॥
इति श्रीमत्सायणमाधवीये सर्वदर्शनसंग्रहे शैवदर्शनम् ॥