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सर्वदर्शनसंग्रहे
( २. प्रत्यभिज्ञा-दर्शन का साहित्य ) तस्येयत्तापि न्यरूपि परीक्षकः१. सूत्रं वृत्तिविवृतिर्लध्वी बृहतीत्युभे विशिन्यौ।
प्रकरणविवरणपञ्चकमिति शास्त्रं प्रत्यभिज्ञायाः॥ परीक्षकों ( अधिकारियों) ने इस शास्त्र की सीमा ( इयत्ता ) का भी विचार किया है-'सूत्र ( संक्षेप में अर्थ को समझना ), वृत्ति ( सम्बद्ध अर्थ का कथन ) विवृति (विवरण, दूसरे शब्दों के द्वारा अर्थ-वर्णन), लघु और बृहत् दो प्रकार की विमर्शिनी (कुछ और अधिक विचार करना), ये पाँच प्रकार के प्रकरण (प्रसंगबोधक या एकार्थप्रतिपादक ग्रन्थांश ) और विवरण ( व्याख्यानग्रन्थ की व्याख्या ) प्रत्यभिज्ञा के शास्त्र ( साहित्य ) हैं।
विशेष-प्रत्यभिज्ञा-दर्शन का वास्तव में त्रिक-दर्शन नाम होना चाहिए, क्योंकि इसीसे पूरे दर्शन का बोध हो जाता है । 'स्पन्द' और 'प्रत्यभिज्ञा' तो इसके केवल अंगमात्र हैं, भले ही वे आवश्यक ही क्यों न हों। त्रिक नाम पड़ने में यह कहा जाता है कि ९२ आगमों में केवल तीन-सिद्धा, नामक और मालिनी की प्रधानता होने के कारण (तन्त्रालोक ११३५ ), या पर, अपर और परापर के त्रिकों का वर्णन करने के कारण (वही, १७-२१), या अभेदवाद के आलोक में अभेद, भेद और भेदाभेद तीनों का वर्णन करने के कारण इसका नाम त्रिक पड़ा हो । काश्मीर में ही सभी ग्रंथकारों के उत्पन्न होने के कारण इसे काश्मीरी शैव-सिद्धान्त भी कहते हैं। काश्मीर में इस दर्शन का बहुत प्रचार था, किन्तु गत १०० वर्षों से इसकी परम्परा वहाँ भी समाप्त हो गई है । स्मरणीय है कि हिन्दी के सुप्रसिद्ध कवि और नाटककार श्री जयशंकर 'प्रसाद' के परिवार में भी इसी त्रिक-दर्शन का प्रचार था जिसे उन्होंने अपने युग-प्रवर्तक महाकाव्य 'कामायनी' में अमर कर दिया है।
त्रिक दर्शन शैव-सिद्धान्त का ही एक भेद है, किन्तु अद्वैतवादी विचारों से परिपूर्ण है। ऐसी मान्यता है कि परम शिव ने अपने पांच मुखों से उत्पन्न शिवागमों की द्वैतवादी व्याख्या देखकर अद्वैत तत्त्व के प्रचार के लिए दुर्वासा ऋषि को अपना कार्यभार सौंपा। दुर्वासा ने अपने तीन मानस पुत्र उत्पन्न किये और उन्हें तीन उपदेश दिये--त्र्यम्ब को अद्वैत दर्शन का, आमर्दक को द्वैत का तथा श्रीनाथ को द्वैताद्वैत दर्शन का उपदेश दिया। त्र्यम्बक के द्वारा पचारित होने के कारण इस दर्शन ( अद्वैतवादी त्रिक) को त्रयम्बक दर्शन भी कहते हैं जिससे सोमानन्द (८५० ई० ) अपने को त्र्यम्बक से १९वीं पीढ़ी में रखता है । बहुत सम्भव है त्रिक-दर्शन का आविर्भाव पंचम शतक में हुआ हो।
दोनों की विचारधारा एक होने पर भी स्पन्द और प्रत्यभिज्ञा के साहित्य पृथक्-पृथक् हैं, परन्तु दोनों को प्रायः मिलाकर ही रखते हैं। प्रत्यभिज्ञा-दर्शन के पांच प्रकरण