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प्रत्यभिज्ञा-दर्शनम्
स्वच्छन्दतः सृजति संसृतिमीश्वरोऽयं,
भावान्विभासयति चात्मनि विम्बरूपान् ।
अद्वैतरूपविदितं नवतत्त्वमत्र
साक्षात्कृतिं दिशति तत्परमं समीहे ॥ -- ऋषिः
( १. प्रत्यभिज्ञा-दर्शन का स्वरूप )
अत्रापेक्षाविहीनानां जडानां कारणत्वं दुष्यतीत्यपरितुष्यन्तो मतान्तरमन्विष्यन्तः परमेश्वरेच्छावशादेव जगन्निर्माणं परिघुष्यन्तः, स्वसंवेदनोपपत्त्या आगमसिद्धप्रत्यगात्मतादात्म्ये नानाविधमान मेयादिभेदाभेदशालिपरमेश्वरोऽनन्यमुखप्रेक्षित्वलक्षणस्वातन्त्र्यभाक् स्वात्मदर्पणे भावान्प्रतिबिम्बवद् अवभासयतीति भणन्तो, बाह्याभ्यन्तरचर्याप्राणायामातिक्लेशप्रयासकलापवैधुर्येण सर्वसुलभमभिनवं प्रत्यभिज्ञामात्रं परापरसिद्धय पायमभ्युगच्छन्तः, परे माहेश्वराः प्रत्यभिज्ञाशास्त्रमभ्यस्यन्ति ।
महेश्वर-सम्प्रदाय के ही कुछ दूसरे दार्शनिक हैं जो अर्युक्त शेव-दर्शन से असन्तुष्ट हैं, क्योंकि उस दर्शन के अनुसार अपेक्षारहित ( प्रयोजनशून्य Motiveless ) जड़ पदार्थों को कारण माना गया है जो दोषपूर्ण है । [ लौकिक व्यवहार में लोग कहते हैं कि घट- निर्माण के कारण हैं मिट्टी, डंडा, चाक आदि । लेकिन वस्तुस्थिति ऐसी नहीं है। न तो केवल मिट्टी से घट बनता है, न केवल चाक से, न डंडे से । अब यदि यह मानें कि ये सब मिलकर घट बनाते हैं तब प्रश्न होगा कि घट-निर्माण में किसकी अपेक्षा हुई ? मिट्टी, डंडे या चाक की तो अपेक्षा नहीं है, क्योंकि अपेक्षा किसी चेतन पदार्थ में ही होती है । यह चेतन का धर्म है । अब यदि कुम्भकार को घट का कारण मानें कि वह मिट्टी आदि की अपेक्षा रखते हुए घट बनाता है तो ठीक होगा । ठीक यही उदाहरण संसार के निर्माण में दिया जा सकता है । कर्म तो जड़ पदार्थ है, उससे संसार का निर्माण कैसे हो सकेगा ? अब यदि इसी उदाहरण के बल पर कर्मों की अपेक्षा रखनेवाले ईश्वर को संसार का कारण मानें तो ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा होने से संसार के निर्माण में ईश्वर पूर्णतः स्वतन्त्र नहीं रहेगा । पूर्ण स्वातन्त्र्य का अभिप्राय है कि किसी दूसरी वस्तु की अपेक्षा न रहे । किसी रूप में दूसरे का सहारा न ले । ]