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सर्वदर्शनसंग्रहे
नहीं। कारण यह है कि बोध कराना इसके स्वभाव में हो नहीं और ज्ञान बोध से ही होता है। ]
चेतन के अधीन रहनेवाली कला स्वयम् अचेतन होती है। इसके भी दो भेद हैंकार्य के रूप में कला (विषयरूपा कला ) और कारण के रूप में कला ( इन्द्रियरूपा कला )। कार्याख्या कला दस प्रकार की होती है—पृथिवी आदि पाँच तत्त्व ( Gross elements ) और रूप आदि पाँच गुण ( Subtle elements )। कारणाख्या कला के तेरह भेद हैं -पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ (Sense organs ), पाँच कर्मेन्द्रियाँ ( Motor organs ) तथा अव्यवसाय ( निश्चय ), अभिमान ( अनात्मा के साथ आत्मा का तादात्म्य स्थापित करना ) और संकल्प नाम की तीन वृत्तियों ( Functions ) के भेद के कारण तीन प्रकार के अन्तःकरण-बुद्धि ( Intellcct ), अहंकार ( Ego ) और मन ( Cogitant Principle )।
विशेष-दस इन्द्रियाँ और तीन अन्तःकरण कारण के रूप में ( कारणाख्या ) कला हैं, क्योंकि ये विषयज्ञापन के कारण हैं । दूसरी ओर पांच महाभूतों और उनके गुणों ( रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, शब्द ) को 'कार्य के रूप में कला' कहते हैं, क्यं कि ये इन्द्रियों के कार्य हैं । विषय इन्द्रियों के अधीन हैं और इन्द्रियाँ विषयों के अधीन-इस प्रकार ये दोनों प्रकार की कलाएं आपस में एक दूसरे के अधीन हैं । चेतन के अधीन तो दोनों ही हैं । इस प्रकार की गणना सिद्ध करती है कि सांख्य-दर्शन का प्रभाव इन पर पर्याप्त मात्रा में है । सांख्य में इन दस और तेरह तत्त्वों के अतिरिक्त पुरुष और प्रकृति मिलाकार कुल पचीस तत्त्व दिखलाये जाते हैं।
पशुत्वसम्बन्धी पशुः। सोऽपि द्विविधः-साजनो निरञ्जनश्चेति । तत्र साञ्जनः शरीरेन्द्रियसम्बन्धी । निरञ्जनस्तु तद्रहितः। तत्प्रपञ्चस्तु पञ्चार्थभाष्यदीपिकादौ द्रष्टव्यः। __ पशुत्व ( पुनर्जन्मादि गुण ) जिसमें हों वह पशु है। यह भी दो प्रकार का हैसाजन ( शरीर और इन्द्रियों से युक्त ) तथा निरञ्जन (शरीरेन्द्रिय से रहित )। साजन वह है जिसे शरीर और इन्द्रियों से सम्बन्ध हो । जिस सम्बन्ध के द्वारा एक सम्बन्धी के धर्म दूसरे सम्बन्धी में भी समझे या कहे जाते हैं उस विशेष सम्बन्ध को साञ्जन कहते हैं । जीव में शरीर और इन्द्रिय के सम्बन्ध से स्थूलत्व, कारणत्व आदि धर्मों का वर्णन होता है अतः वह माञ्जन है। ] निरञ्जन उस सम्बन्ध से रहित होता है । इनका विस्तार पचार्थमा यदीपिका ( रागीकर भट्ट के गाय पर टीका-लेखक अज्ञात ) आदि ग्रन्थों में देखना चाहिए।
(५. कारण और योग का निरूपण ) समस्तसृष्टिसंहारानुग्रहकारि कारणम् । तस्यैकस्यापि गुणकर्मभेदापेक्षया विभागः उक्तः 'पतिः साद्यः' इत्यादिना। तत्र पतित्वं निरतिशयदृक