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सर्वदर्शनसंग्रहे
अस्यार्थः-उक्तास्त्रयः पदार्था यस्मिन्सन्ति तत्रिपदार्थ, विद्याक्रियायोगचर्याख्याश्चत्वारः पादा यस्मिँस्तच्चतुश्चरणं महातन्त्रमिति । तत्र पशूनामस्वतन्त्रत्वात्पाशानामचंतन्यात् तद्विलक्षणस्य पत्युः प्रथममुद्देशः। चेतनत्वसाधात् पशूनां तदानन्तर्यम् । अवशिष्टानां पाशानामन्ते विनिवेश इति क्रमनियमः।
इसका यह अर्थ है कि उपर्युक्त तीन पदार्थ ( पति, पशु, पाश ) जिसमें हैं वह ( महातंत्र ) 'त्रिपदार्थ' कहलाता है । विद्या, क्रिया, योग और चर्या नाम के चार पाद ( चरण) भी जिसमें हैं वह महातन्त्र 'चतुश्चरण' है।
तीन पदार्थों में पूर्वापर क्रम-इनमें पशु तो स्वतंत्र ही नहीं है, पाश ( संसार ) अचेतन ही है, इसलिए इनसे विलक्षण ( Dissimilar ) रहनेवाले ( अर्थात् स्वतन्त्र और चेतन ) पति का पहले नाम लिया गया है। [ पति से ] चैतन्य धर्म समान रूप में होने के कारण उसके बाद पशुओं ( जीवों) का नाम लेते हैं। अब बाकी बचे हुए पाश ( जड़ पदार्थों ) का नाम अन्त में लेते हैं, यही इनके पूर्वापर क्रम का नियम है । ___ दीक्षायाः परमपुरुषार्थहेतुत्वात् तस्याश्च पशुपाशेश्वरस्वरूप-निर्णयोपायभूतेन मन्त्रमन्त्रेश्वरादिमाहात्म्यनिश्चायकेन ज्ञानेन विना निष्पादयितुमशक्यत्वात् तदवबोधकस्य विद्यापादस्य प्राथम्यम् । अनेकविधसाङ्गदीक्षाविधिप्रदर्शकस्य क्रियापादस्य तदानन्तर्यम् । योगेन विना नाभिमतप्राप्तिरिति साङ्गयोगज्ञापकस्य योगपादस्य तदुत्तरत्वम् । विहिताचरणनिषिद्धवर्जनरूपां चर्या विना योगोऽपि न निर्वहतीति तत्प्रतिपादकस्य चर्यापादस्य चरमत्वमिति विवेकः।
चार पादों का तारतम्य-दीक्षा ( गुरु से नियमपूर्वक मन्त्र का उपदेश लेना') से ही परम पुरुषार्थ ( मोक्ष ) को प्राप्ति होती है, किन्तु दीक्षा का निष्पादन ( सम्पादन ) उन ज्ञान के बिना सम्भव नहीं है जिस ज्ञान के द्वारा पशु, पाश और ईश्वर के स्वरूप का निर्णय होता है ( = पदार्थों के निर्णय करने का जो उपाय है ), तथा जो ज्ञान मन्त्र, मन्त्रेश्वर आदि की महिमाओं का निर्णय कराता है। [ पशुओं की विशिष्ट सामर्थ्य के प्रतिबन्धक अनेक पाश हैं, भक्तों के अधिकार के अनुसार ईश्वर इन पाशों को मिटाता है। इन सबों को जानने पर ही पति, पशु और पाश पृथक् रूप में समझ में आ सकता है। इसीलिए सबसे पहले दीक्षा का उपपादक ( साधक ) ज्ञान या विद्या अपेक्षित है । ]
१. दिव्यज्ञानं बलो दद्यात्कुर्यात्पापस्य संक्षयम् । तस्माद्दीक्षेति सा प्रोक्ता मुनिभिस्तत्त्ववेदिभिः । मन्त्रों का ग्रहण दीक्षा-विधि से ही होता है
ग्रन्थे दृष्ट्वा तु मन्त्रं वै यो गृह्वाति नराधमः । मन्वन्तरसहस्रेषु निष्कृति व जायते ।