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शैव-दर्शनम्
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अंगों के साथ अनेक प्रकार की दीक्षाओं की विधियों का प्रदर्शन करनेवाला क्रियापाद का वर्णन उसके बाद हुआ है । उसके बाद योगपाद आता है जिसमें सांगयोग का वर्णन है, क्योंकि योग के बिना अभिमत वस्तु की प्राप्ति नहीं होती । चर्या वह है जिसमें विहित कर्म का आचरण तथा निषिद्ध कर्म का वर्जन ( त्याग ) हो, इसके बिना योग परिरक्व नहीं होता, अत: योग के प्रतिपादक चर्यापाद को सबसे अन्त में रखा गया है । यही विचार किया जाता है । [ सर्वप्रथम ज्ञान की आवश्यकता होने से विद्यापाद, फिर दीक्षाविधि के रूप में क्रियापाद, तब दीक्षा का ग्रहण करने के अधिकार की सिद्धि के लिए जप-व्यानादि से युक्त योगपाद और अन्त के योग की सहायता करनेवाली चर्याओं का पाद | योग औषधि है तथा चर्या पथ्य । दोनों की परस्पर अपेक्षा है । इसी क्रम से शेवागमों में चार पादों का क्रम रखा गया है।' अब क्रमशः तीन पदार्थों का निरूपण आरम्भ होता । ]
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( २. 'पति' का निरूपण )
तत्र पतिपदार्थः शिवोऽभिमतः । मुक्तात्मनां विद्येश्वरादीनां च यद्यपि शिवत्वमस्ति, तथापि परमेश्वरपारतन्त्र्यात् स्वातन्त्र्यं नास्ति । ततश्च तनुकरणभुवनादीनां भावानां संनिवेशविशिष्टत्वेन कार्यत्वमवगम्यते । तेन च कार्यत्वेनैषां बुद्धिमत्पूर्वकत्वमनुमीयत इत्यनुमानवशात्परमेश्वरप्रसिद्धिरुपपद्यते ।
इनमें 'पति' पदार्थ से शिव का अर्थ समझा जाता है। मुक्त आत्मावाले ( तथा ) विद्यश्वर आदि यद्यपि शिव हैं । ( उनमें शिवत्व गुण है ), तथापि परमेश्वर के पराधीन होने के कारण वे स्वतन्त्र नहीं हैं । [ यह स्मरणीय है कि नकुलीश - पाशुपात दर्शन में मुक्तों को शिवत्व-प्राप्ति के साथ स्वतन्त्रता भी मिल जाती है, परतन्त्रता नहीं रहती, किन्तु शेवदर्शन में उनकी परतन्त्रता मानी जाती है। 'मुक्त आत्मावाले' शब्द विद्यश्वरादि के विशेषण भी हो सकते हैं और स्वतन्त्र शब्द भी । विद्यश्वरादि को परा ( Highest ) मुक्ति नहीं मिलती । हाँ, अपरा मुक्ति के अधिकारी तो वे अवश्य हैं । इस प्रकार यह स्पष्ट है कि जिस तरह संसार के उत्पादन में परमेश्वर को प्राणियों के कर्म की अपेक्षा रहती है या नहीं, इस विषय में मतभेद है-उसी तरह मुक्तों की स्वतन्त्रता के विषय में भी मनभेद है । अब परमेश्वर की सत्ता का निरूपण होता है । ]
इसी से शरीर, इन्द्रियों और संसार आदि पदार्थों को कार्य के रूप में हम समझते है क्योंकि इन पदार्थों में अवयव - रचना ( संनिवेश Symmery ) की विशिष्टताएँ हैं । [ मनुष्य, पशु, पक्षी, लता, पर्वत आदि पदार्थों के अवयवों की रचना में एक नियमितना देखते हैं, इससे मालूम होता है कि ये कार्य हैं। किसी ने इन्हें उत्पन्न किया है । । चूंकि ये
१. इन्हें तालिका में सरिथेइ, किरिकेइ, योकम और ज्ञानम् कहते हैं ।