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सर्वदर्शनसंग्रहे
ऐसा नहीं समझें कि [ कर्मों की अपेक्षा रखने से ईश्वर की ] स्वतंत्रता में किसी प्रकार की क्षति पहुँचेगी, क्योंकि आज तक ऐसा कभी नहीं पाया गया है कि करणों ( साधनों) की अपेक्षा रखने से कर्ता को स्वतंत्रता में बाधा पहुँची हो। राजा यद्यपि कोषाध्यक्ष की अपेक्षा रखते हैं किन्तु अपने ही प्रसाद ( कृपा ) से दान करते हैं। ( कोषाध्यक्ष से दान दिलवाने का अर्थ यह नहीं है कि राजा से बड़ा कोषाध्यक्ष ही है और राजा को स्वतन्त्रता नहीं)। जैसा कि सिद्ध गुरु ने कहा है-"किसी स्वतन्त्र व्यक्ति में ही ये विशेषताएं होती हैं कि दूसरा कोई उसे प्रयोजित न करे ( काम में न लगा दे वे अप्रयोज्य हों) तथा स्वयं जो कारण ( साधन ) आदि का प्रयोग करे । इसे ही कर्ता की स्वतन्त्रता कहते हैं, यह नहीं कि कर्मादि की अपेक्षा न रखनेवाला ही स्वतन्त्र है।' [ यदि ईश्वर स्वतन्त्र नहीं होता तो उसके प्रयोजक पा उस पर आदेश चलानेवाले कुछ प्रयोजक होते । पयोजक दो ही काम करता है--या तो अपने अभीष्ट कार्य का विनाश करता है या अनिष्ट कार्य कराता है । यही परतन्त्रता है । लेकिन प्रयोजक कोई चेतन हो तभी परतन्त्रता है, इसलिए कर्मों की अपेक्षा न रखना स्वतन्त्रता नहीं है। स्वतन्त्र दूसरों का उपयोग तो करता ही है, इसलिए ईश्वर भी कर्ता होकर करण, सम्प्रदानादि कारक-चक्र का खूब उपयोग करता है । ] ___ इस प्रकार यह सिद्ध हुआ कि भिन्न-भिन्न [ पाप-पुण्य ] कर्मों के समूह या आशय के फलस्वरूप मिलनेवाले भंग, भोग्य वस्तुएं ( भोग साधन ) और उनके उपादान आदि को विशेष रूप से जाननेवाला कर्ता ( ईश्वर ) अनुमान आदि (= श्रुति-प्रमाण से भी ) से सिद्ध किया जाता है। पूज्यपाद बृहस्पति ने उसे इस तरह निरूपित किया है-'इस संसार में भोग्य, भोग के साधन, उनके उपादान ( प्राप्ति या कारण ) आदि को जो विशेषरूप से जानता है उस ( ईश्वर ) के अतिरिक्त पुरुषों के कर्म-समूह के परिणाम का ज्ञाता यहाँ कोई नहीं है।'
विशेष--'आशय' पाप और पुण्य-रूपी कर्मों के संघात को कहते हैं जो फल मिलने के समय तक अन्तःकरण में विराजमान रहता है-आशेरते फलपाकपर्यन्तमन्तःकरण इत्याशयाः । 'भोग' का अर्थ सुख और दुःख से मिलना, भोग के साधन = सुख-दुःख मिलने की वस्तुएं--रोग, शोक, द्रव्यप्राप्ति आदि । उपादान = मिलकर फल देनेवाला कारण ( Material cause )। अन्यत्रापि५. विवादाध्यासितं सर्वं बुद्धिमत्कर्तृपूर्वकम् ।
कार्यत्वादावयोः सिद्धं कार्य कुम्भादिकं यथा ॥ इति । सर्वकर्तृत्वादेवास्य सर्वज्ञत्वं सिद्धम् । अज्ञस्य कारणासम्भवात् । उक्तं च श्रीमन्मृगेन्द्रः
६. सर्वज्ञः सर्वकर्तृत्वात्साधनाङ्गफलैः सह ।
यो यजानाति कुरुते स तदेवेति सुस्थितम् ॥ इति ।