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नकुलीश-पाशुपत-दर्शनम्
२६९ स्मरणीय है कि सर्वज्ञ पाँचों पदार्थों को. समास, विस्तर, विभाग और विशेष के साथ ही जानता है । अब अन्य शास्त्रों से अपने शास्त्र की विशेषताएं बतलाई जायेगी।]
उदाहरणतः, (१) दूसरे शास्त्रों में दुःख से मुक्त हो जाना ही दुःखान्त ( Liberation मोक्ष ) है किन्तु अपने ( पाशुपत ) शास्त्र में परम ऐश्वर्य की प्राप्ति भी होती है । ( २ ) दूसरे शास्त्रों में कार्य वह है जो पहले विद्यमान न हो, पीछे ( कारणकादि के व्यापारों (प्रयासों ) से ] उत्पन्न हो ( अर्थात् कार्य अनित्य है )। किन्तु अपने शास्त्र में पशु आदि नित्य पदार्थों को कार्य कहते हैं । ( ३ ) अन्य शास्त्रों में कारण सापेक्ष होता है (जैसे वेदान्त में धर्माधर्म की अपेक्षा रखनेवाला ईश्वर ) जब कि इस शास्त्र में निरपेक्ष भगवान् ही कारण होता है। (४) दूसरे शास्त्रों में योग वह है जो कैवल्य की प्राप्ति करा दे ( जैसे योगशास्त्र में कहा गया है कि जब चेतन बुद्धि आदि उपाधियों से रहित होकर अपने स्वरूप में अवस्थित होता है तब पुरुष को कैवल्य मलता है जो योग से संभव है)। इस शास्त्र में योग उसे कहते हैं जो परम ऐश्वर्य से युक्त दुःखान्त ( मोक्ष) देता है। (५) अन्य शास्त्रों में (जैसे मीमांसा में ) विधि वह है जो स्वर्ग आदि ऐसा फल प्रदान करे जिस ( फल ) को आवृत्ति (निवृत्ति) फिर हो जाय, लेकिन इस शास्त्र में विधि से सामीप्य आदि फल मिलता है जिसका नाश संभव नहीं। [ ईश्वरसामीप्य पाकर फिर वहाँ से लौटना नहीं है, मीमांसा की विधियों के अनुसार काम करने के बाद स्वर्गफल मिलता है किन्तु वह क्षणिक होता है-पुण्य क्षीण होने पर फिर मर्त्यलोक में आना ही पड़ता है। ]
विशेष-पाशुपत-शास्त्र का 'विशेष' बहुत महत्त्वपूर्ण है। यदि सभी दार्शनिक अपने-अपने दर्शनों का विशेष व्यक्त करते तो बड़ा ही सुन्दर होता । विज्ञापन और पदार्थज्ञान दोनों का अभूत समन्वय होता। यह विशेष पाशुपत-दर्शन को विशिष्ट भूमि पर स्थापित करता है जिससे अन्य सम्प्रदायों की अपेक्षा पाशुपत-शास्त्र की अपनी विशेषताएं स्पष्ट व्यक्त होती हैं।
(८. निरपेक्ष ईश्वर की कारणता ) ननु महदेतदिन्द्रजालं यनिरपेक्षः परमेश्वरः कारणमिति । तथात्वे कर्मवैफल्यं स्वकार्याणां समसमयसमुत्पादश्चेति दोषद्वयं प्रादुःष्यात् ।
मैवं मन्येथाः । व्यधिकरणत्वात् । यदि निरपेक्षस्य भगवतः कारणत्वं स्यातहि कर्मणो वैफल्ये किमायातम् ? प्रयोजनाभाव इति चेत्-कस्य
प्रयोजनाभावः कर्मवैफल्ये कारणम् ? किं कर्मिणः, किं वा भगवतः ? . यह शंका होती है कि यह बहुत बड़ा इन्द्रजाल ( झूठी बात, इन्द्रियों की भ्रान्ति, ईश्वर की माया ) है कि निरपेक्ष ( Absolute ) परमेश्वर को [ पाशुपत-दर्शन में ] कारण मानते हैं, क्योंकि ऐसा करने पर दोष उत्पन्न होंगे-सभी कर्म निष्फल होंगे तथा सभी कार्य एक साथ ही उत्पन्न होने लग जायंगे। [ यदि ईश्वर निरपेक्ष या बिल्कुल .