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सर्वदर्शनसंग्रहे
स्वतन्त्र होकर कार्य करता है तब तो प्राणियों के द्वारा किये जानेवाले धर्म या अधर्म का बिना विचार ही किये फल देता होगा । ऐसी दशा में पुण्य या पाप कर्म तो व्यर्थ ही हैं । कार्य की उत्पत्ति में हाथ न बँटाने के कारण सभी कार्य अपने-आप एक ही साथ उत्पन्न होने लगेगे । दूसरी ओर यदि ईश्वर को सापेक्ष मान लें तो ये कठिनाइयाँ स्वयं हल हो जायें, क्योंकि ईश्वर के द्वारा सुख-दुःख का संपादन होगा और कर्मों की सफलता मानी जायगी । यदि सभी कर्म एक साथ नहीं किये जायेंगे तो उनकी फलप्राप्ति भी एक साथ नहीं होगी । यही कारण है कि वेदान्त में ईश्वर को धर्माधर्मापेक्षी मानते हैं । ( ब्र० सू० २ !१।३४ ) ]
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पाशुपत - दर्शनवाले कहते हैं कि आप लोग ऐसा न समतें क्योंकि दोनों के ( ईश्वर और प्राणियों के ) कार्यक्षेत्र के आधार अलग-अलग हैं । [ प्राणियों के द्वारा किये गये कर्मों से उत्पन्न अदृष्ट प्राणियों पर ही आधारित है । संसार की उत्पत्ति का व्यापार ईश्वर पर आधारित है । दूसरी जगह का अदृष्ट दूसरी जगह के व्यापार पर कैसे अपनी छाप दे सकता है ? संसारोत्पत्ति और कर्मफल बिल्कुल पृथक् हैं - एक दूसरे से क्या लेना-देना ? अतः निरपेक्ष ईश्वर को ही कारण बनाना ठीक है । ]
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यदि निरपेक्ष भगवान् को ही संसार का कारण मानें और कर्म की विफलता माननी पड़े तो क्या आपत्ति है ( क्या फल पड़ेगा ) ? यदि आप कहें कि ऐसा करने से कोई प्रयोजन ही नहीं रहेगा, तो हम फिर पूछेंगे कि कर्म को विफल मानने में कारण - स्वरूप किसका प्रयोजनाभाव रहेगा ? क्या कर्म करनेवाले प्राणी के प्रयोजन का अभाव कर्म की विफलता का कारण होगा या भगवान् ( संसारोत्पादक ) के प्रयोजन का अभाव ?
नाद्यः । ईश्वरेच्छानुगृहीतस्य कर्मणः सफलत्वोपपत्तेः । तदननुगृहीतस्य ययातिप्रभृतिकर्मवत् कदाचिन्निष्फलत्वसंभवाच्च । न चैतावता कर्मसु अप्रवृत्तिः । कर्षकादिवदुपपत्तेः । ईश्वरेच्छायतत्त्वाच्च पशूनां प्रवृत्तेः ।
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पहला विकल्प ( कि कर्म करनेवाले प्राणी की प्रयोजन - शून्यता कर्मवैफल्य का कारण है ) तो हो ही नहीं सकता। ईश्वर की इच्छा से अनुगृहीत होने ( Supported ) पर ही कर्म की सफलता निर्भर करती है कभी ययाति आदि पुरुषों के कर्म की [ ईश्वर तो कर्म से निरपेक्ष रहकर ही ईश्वरसापेक्ष होना पड़ता है । कृषि कर्म में अंकुर उत्पन्न करने
ईश्वर की इच्छा से तरह हमारे कर्म भी जगत्कारण बनता है,
सम्पादित न होने पर कभीनिष्फल हो जा सकते हैं । किन्तु कर्म को हरेक दशा में की सामर्थ्य मेघ पर निर्भर निरपेक्ष है । जीव तीन प्रकार का कर्म करता है— कुछ कर्मों कुछ कर्मों से क्रुद्ध होता है और कुछ कर्मों पर उदासीन रहता देते ही हैं, भले ही वह अच्छा फल हो या बुरा । किन्तु अन्तिम कर्म निष्फल होता है । जिस कर्म को वह अनुगृहीत या स्वीकार नहीं करना उसका फल
है, किन्तु मेघ कृषि - कर्म से से ईश्वर प्रसन्न होता है, है । प्रथम दो कर्म तो फल